हनुमान्जीके द्वारा मैंने आपका सुयश सुना कि आप जन्म-मरणके
भयका नाश करनेवाले हैं । दुःखियोंका दुःख दूर करनेवाले आप मेरी रक्षा कीजिये । मैं
आपके शरणमें आया हूँ । विभीषणने भगवान्पर कोई दोषारोपण नहीं किया । उसके मनमें संकोच
था, भय लगता था, इसलिये हनुमान्जी महाराजसे भी उसने कहा कि ‘महाराज ! क्या मेरे जैसेको भी भगवान् स्वीकार कर लेंगे ?’ हनुमान्जी कहते हैं‒‘देखो मेरे जैसेको भी स्वीकार कर लिया है
।’ भगवान् सबको स्वीकार करते हैं, तुमको भी स्वीकार कर लेंगे,
इस प्रकार जब आश्वासन दिया,
तब हिम्मत हुई । विभीषण संकोच रखता था और साधन करता था । भगवान्ने
उसको भी अपना सखा बनाया । सुग्रीव जैसेको भी निषादराज गुहकी तरह अपना सखा बना लिया
।
विभीषणने क्या किया कि जब सर्वथा विजय हो गयी और रावण मारा गया,
तब विभीषणने भगवान्से कहा‒‘महाराज ! आप घरपर पधारिये ।’
अब जन गृह पुनीत प्रभु
कीजे ।
मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥
(मानस,
लंकाकाण्ड, दोहा ११६ । ५)
‘जिससे युद्धका परिश्रम दूर होवे । मेरा घर पवित्र करो,
पधारो ।’ तो भगवान्ने कहा‒‘भाई ! तुम्हारा घर हमारा ही है,
यह सच है, पर हमारेको भरतकी याद आ रही है । भरत भी मेरेको याद करता है,
इसलिये मेरेको अयोध्या जल्दी पहुँचना है । गाँवमें,
घरोंमें मैं नहीं जाता हूँ,
इस कारण लक्ष्मणजीको भेजता हूँ,
यह राजगद्दी कर देगा । विभीषणने युद्ध समाप्त होनेके बाद घर
पधारनेके लिये कहा । जबकि निषादराज गुहने आरम्भमें मिलते ही यह कहा कि आप घरपर पधारो;
परंतु बन्दा सुग्रीवने कहा ही नहीं कि आप मेरे घर पधारो । ऐसा
विषयी था । फिर भी रामजी तो तीनोंको ही सखा कहते हैं ।
भगवान् कहते हैं कि तुम अपने गुण-अवगुणोंकी तरफ मत देखो । केवल
मेरे सम्मुख हो जाओ, मेरे पास आ जाओ, बस ।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अध नासहिं
तबहीं ॥
(मानस,
सुन्दरकाण्ड, दोहा ४४ । २)
इसलिये भगवान्की शरण ले लो, आश्रय
ले लो, उनके सम्मुख हो जाओ । वे सबको सखा बनानेको, सबको
अपना बनानेको तैयार हैं । भगवान् एक हाथमें धनुष और एक हाथमें बाण रखते हैं । बाण तो होता है सीधा और धनुष
होता है टेढ़ा । वे दोनोंको ही हाथमें रखते हैं,
सीधेको (बाणको) छोड़ देते हैं,
पर टेढ़े (धनुष) को नहीं छोड़ते हैं;
क्योंकि उसपर कृपा विशेष रखते हैं,
यह कहीं जायगा तो फँस जायगा ।
इसलिये जैसे भी हो,
अपनी ओरसे सरल, सीधे होकर भगवान्के चरणोंकी शरण चले जाओ,
बस । आश्रय भगवान्का पकड़े रखो । फिर आप डरो मत कि हम कैसे हैं,
कैसे नहीं हैं, इसकी जरूरत नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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