।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
सत्-असत्‌का विवेक



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जैसा है, वैसा अनुभव करनेका नाम ज्ञानहै और जैसा है ही नहीं, उसको हैमान लेनेका नाम अज्ञान’ है । जिनको असत्‌के अभावका और सत्‌के भावका अनुभव हो गया है, वे तत्त्वज्ञानी हैं, जीवन्मुक्त हैं, विदेह हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, गुणातीत हैं, भगवत्प्रेमी हैं, वैष्णव हैं । परन्तु जो असत्‌का भाव और सत्‌का अभाव मानते हैं, असत्‌को प्राप्त और सत्‌को अप्राप्त मानते हैं, वे अज्ञानी हैं, बेसमझ हैं, विपरीत बुद्धिवाले हैं ।

भगवान् कहते हैं‒

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।
                                                   (गीता २ । १६)

असत्‌का अभाव और सत्‌का भाव‒दोनोंके तत्त्व-(निष्कर्ष-) को जाननेवाले जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष एक सत्-तत्त्वको ही देखते हैं अर्थात् स्वतः-स्वाभाविक एक हैका ही अनुभव करते हैं[*] । तात्पर्य है कि असत्‌का तत्त्व भी सत् है और सत्‌का तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक सत्ही है‒ऐसा जान लेनेपर उन महापुरुषोंकी दृष्टिमें एक सत्-तत्त्व‒‘है’ के सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।

असत्‌की सत्ता विद्यमान न रहनेसे उसका अभाव और सत्‌का भाव सिद्ध हुआ और सत्‌का अभाव विद्यमान न रहनेसे उसका भाव सिद्ध हुआ । निष्कर्ष यह निकला कि असत् है ही नहीं, प्रत्युत सत् ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । सत्‌के सिवाय और कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं तथा होनेकी सम्भावना ही नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


[*] ‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं‒देखना और अनुभव करना (जानना) ‘पश्यार्थैश्चानालोचने’ (पाणि अष्टा ८ । १ । २५)