।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७१, बुधवार
सत्-असत्‌का विवेक



(गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मतत्त्वको कितना ही अस्वीकार करें, उसकी कितनी ही उपेक्षा करें, उससे कितना ही विमुख हो जाये उसका कितना ही तिरस्कार करें, उसका कितनी ही युक्तियोंसे खण्डन करें, पर वास्तवमें उसका अभाव विद्यमान है ही नहीं । सत्‌का अभाव होना सम्भव ही नहीं है । सत्‌का अभाव कभी कोई कर सकता ही नहीं‒‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २ । १७)

जैसे, नदी निरन्तर बहती है, एक क्षणके लिये भी स्थिर नहीं रहती । परन्तु वह जिस आधारशिलाके ऊपर बहती है, वह शिला निरन्तर स्थिर रहती है, एक इंच भी आगे बहकर नहीं जाती । नदीमें कभी स्वच्छ जल आता है, कभी कूड़ा-कचरा आता है, कभी पुष्प बहते हुए आ जाते हैं, कभी कोई मुर्दा बहता हुआ आ जाता है, कभी कोई मनुष्य तैरता हुआ आ जाता है; परन्तु शिलामें कोई फर्क नहीं पड़ता । वह ज्यों-की-त्यों अपनी जगह स्थित रहती है । तात्पर्य है कि जो निरन्तर बहता है, वह असत्’ है और उसका भाव (होनापन) विद्यमान नहीं है एवं जो निरन्तर रहता है, वह सत्है और उसका अभाव (न होनापन) विद्यमान नहीं है ।

भगवान् कहते हैं‒

या निशा सर्वभूतानां    तस्यां  जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
                                                     (गीता २ । ६१)

सभी मनुष्योंकी जो रात है उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें साधारण मनुष्य जागते हैं, वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है ।’

सांसारिक मनुष्य रात-दिन भोग और संग्रहमें ही लगे रहते हैं, उनको ही महत्ता देते हैं, सांसारिक कार्योंमें बड़े सावधान और निपुण होते हैं, तरह-तरहके कला-कौशल सीखते हैं, लौकिक वस्तुओंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति मानते हैं, सांसारिक पदार्थोंकी बड़ी महिमा गाते हैं, सदा जीवित रहकर सुख भोगनेके लिये बड़ी-बड़ी तपस्या करते हैं, देवताओंकी उपासना करते हैं, मन्त्र-जप करते हैं । परन्तु जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष तथा सच्चे साधकोंकी दृष्टिमें वह बिलकुल रात है, अन्धकार है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है । कारण कि उनकी दृष्टिमें ब्रह्मलोकतक सम्पूर्ण संसार विद्यमान है ही नहीं[*]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


[*] आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ॥
                                                         (गीता ८ । १६)