श्रीमद्धगवद्रीतामें आया है‒
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः ।
(२ । १६)
‘असत्का भाव विद्यमान नहीं है और सत्का
अभाव विद्यमान नहीं है ।’
इस श्लोकार्धमें तीन धातुओंका प्रयोग
हुआ है‒
१. ‘भू सत्तायाम्’‒जैसे, ‘अभावः’ और ‘भावः’ ।
२. ‘अस् भुवि’‒जैसे, ‘असतः’ और ‘सतः’ ।
३. ‘विद सत्तायाम्’‒जैसे, ‘विद्यते’ और ‘न विद्यते’ ।
यद्यपि इन तीनों धातुओंका मूल अर्थ
एक (सत्ता) ही है, तथापि सूक्ष्मरूपसे ये तीनों अपना अलग
अर्थ भी रखते हैं; जैसे‒‘भू’ धातुका अर्थ ‘उत्पत्ति’ है, ‘अस्’ धातुका अर्थ ‘सत्ता’ (होनापन) है और ‘विद्’ धातुका अर्थ ‘विद्यमानता’ (वर्तमानमें सत्ता) है ।
‘नासतो विद्यते भावः’ पदोंका अर्थ है‒‘असतः भावः न
विद्यते’ अर्थात् असत्की सत्ता विद्यमान नहीं
है । असत् वर्तमान नहीं है । असत् उपस्थित नहीं है । असत् प्राप्त नहीं है । असत् मिला
हुआ नहीं है । असत् मौजूद नहीं है । असत् कायम नहीं है । जो
वस्तु उत्पन्न होती है, उसका नाश अवश्य होता है‒यह नियम है । उत्पन्न होते ही तत्काल उस वस्तुका
नाश शुरू हो जाता है । उसका नाश इतनी तेजीसे होता है कि उसको दो बार कोई देख ही नहीं
सकता अर्थात् उसको एक बार देखनेपर फिर दुबारा उसी स्थितिमें नहीं देखा जा सकता । यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तुका किसी भी क्षणमें अभाव है, उसका सदा अभाव ही है । अतः संसारका
सदा ही अभाव है । संसारको कितना ही महत्त्व दें, उसको कितना ही ऊँचा मानें, उसका कितना ही सहारा लें, उसकी कितनी ही गरज करें, पर वास्तवमें वह विद्यमान है ही नहीं । असत् प्राप्त है
ही नहीं । असत् कभी प्राप्त हुआ ही नहीं । असत् कभी प्राप्त होगा ही नहीं । असत्का
प्राप्त होना सम्भव ही नहीं है ।
‘नाभावो विद्यते सतः’ पदोंका अर्थ है‒‘सतः अभावः न
विद्यते’ अर्थात् सत्का अभाव विद्यमान नहीं
है । दूसरे शब्दोंमें, सत्की सत्ता सदा विद्यमान है । सत्
सदा वर्तमान है । सत् सदा उपस्थित है । सत् सदा प्राप्त है । सत् सदा मिला हुआ है ।
सत् सदा मौजूद है । सत् सदा कायम है । किसी भी देश, काल, वस्तु व्यक्ति, घटना. परिस्थिति, अवस्था आदिमें सत्का अभाव नहीं होता
। कारण कि देश, काल आदि तो असत् (अभावरूप) हैं, पर सत् सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । उसमें कभी किंचिन्मात्र
भी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कमी नहीं आती । अतः सत्का सदा
ही भाव है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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