(गत ब्लॉगसे आगेका)
असत्से अलग हुए बिना असत्का ज्ञान
नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें हम असत्से सर्वथा
अलग हैं । सत्से अभिन्न हुए बिना सत्का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें (स्वरूपसे) हम सत्से सर्वथा अभिन्न
हैं । असत्से अलग होनेका अर्थ है‒असत्में राग न होना और सत्से अभिन्न होनेका अर्थ
है‒सत्में प्रियता होना ।
सदा-सर्वदा निवृत्त रहनेपर भी असत्का
राग, आकर्षण, महत्त्वबुद्धि, सुखबुद्धि रहते हुए असत्का ज्ञान अर्थात्
निवृत्ति नहीं होती और सदा-सर्वदा प्राप्त रहनेपर भी सत्में प्रियता हुए बिना सत्का
ज्ञान अर्थात् प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत केवल चर्चा अर्थात् सीखनामात्र होता है । सीखनेमात्रसे अपनी जानकारीका
अभिमान तो हो सकता है, पर अनुभव नहीं हो सकता ।
असत्में राग न होनेसे असत्का ज्ञान
हो जाता है । असत्का ज्ञान होते ही अर्थात् असत्को असत्-(अभाव) रूपसे जानते ही असत्की
निवृत्ति तथा सत्की प्राप्ति हो जाती है और सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है । सत्में
प्रियता होनेसे सत्का ज्ञान हो जाता है । सत्का ज्ञान होते ही अर्थात् सत्को सत्-(भाव)
रूपसे जानते ही सत्की प्राप्ति हो जाती है और आनन्द मिल जाता है ।
असत्की निवृत्ति और सत्की प्राप्ति‒ये
दोनों एक ही हैं । ऐसे ही सम्पूर्ण दुःखोंका नाश और आनन्दकी प्राप्ति भी एक ही हैं, केवल कहनेमें भेद है । कारण कि वास्तवमें असत् कभी था
नहीं, है नहीं और रहेगा नहीं, पर सत् (परमात्मा) सदा ही था, है और रहेगा । सत्को मानें या न मानें, जानें या न जानें, स्वीकार करें या न करें, अनुभव करें या न करें, सत्की सत्ता सदा विद्यमान रहती है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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