(गत ब्लॉगसे आगेका)
देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें
जा रहे हैं । परंतु परमात्मा पहले भी था, पीछे भी रहेगा और वर्तमानमें भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । परमात्मामें कभी
फर्क था नहीं, कभी फर्क होगा नहीं, कभी फर्क है नहीं और कभी फर्क हो सकता नहीं । वह नित्य-निरन्तर
ज्यों-का-त्यों रहता है । वह किसीकी दृष्टिमें है और किसीकी दृष्टिमें नहीं है तो इससे
उसका अभाव सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत यह तो दृष्टिदोष है, दृष्टिका अभाव है, जिससे वह होता हुआ भी नहींकी तरह दीखता है ।
संसारकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर
निवृत्ति है और परमात्माकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर प्राप्ति है । संसारकी
प्रतीति है, प्राप्ति नहीं । प्रतीतिकी प्राप्ति
नहीं होती और प्राप्तकी प्रतीति नहीं होती । प्रतीतिकी सर्वथा निवृत्ति है । इस निवृत्तिका
कभी नाश नहीं होता अर्थात् संसारके अभावका कभी अभाव नहीं होता, प्रत्युत नित्य ही अभाव रहता है ।
जिनका संसारमें राग है, उन्हींको यह कहना पड़ता है कि ‘संसार नहीं है, परमात्मा है’ । जिनका संसारमें राग नहीं है, उनको केवल ‘परमात्मा है’ इतना ही कहना पड़ता है । जैसे, रस्सीमें साँप दीखे तो सभय व्यक्तिसे कहते हैं कि ‘साँप नहीं है, रस्सी है’, परन्तु निर्भय व्यक्तिसे केवल ‘रस्सी है’ यही कहना पड़ता है । तात्पर्य है कि संसारमें राग होनेपर, संसारकी सत्ता माननेपर ही संसारकी निवृत्ति करनी पड़ती
है नहीं तो जिसकी सहज-स्वाभाविक नित्य-निरन्तर निवृत्ति है, उसकी निवृत्ति कहना बनता ही नहीं !
संसारका स्वरूप है‒पदार्थ और क्रिया
। जब अज्ञताके कारण संसारकी सत्ता मान लेते हैं, तब पदार्थको लेकर संयोग (पाने) की रुचि और क्रियाको लेकर करनेकी रुचि होती है ।
पदार्थोंके संयोगकी और करनेकी रुचि होनेसे नित्य निवृत्तिमें भी प्रवृत्ति प्रतीत होती
है । परन्तु प्रवृत्ति प्रतीत होनेपर भी निवृत्ति ज्यों-की-त्यों रहती है । अतः पदार्थोंके
संयोगकी और करनेकी रुचिके परिणाममें अभावके सिवाय कुछ नहीं मिलता और अभावको कोई भी
नहीं चाहता ।
जीवका जड-अंशकी प्रधानतासे संसारकी
तरफ भी आकर्षण होता है और चेतन-अंशकी प्रधानतासे परमात्माकी तरफ भी आकर्षण होता है
। दोनोंमें आकर्षण होते हुए भी संसारके आकर्षणसे परिणाममें अभाव ही मिलता है अर्थात्
कुछ भी नहीं मिलता और परमात्माके आकर्षणसे परिणाममें प्रेम मिलता है, परमात्मा मिलता है, जिसके मिलनेसे कुछ भी मिलना बाकी नहीं रहता है । प्रेम तथा बोध‒दोनों एक ही हैं
। बोधके बिना प्रेम ‘आसक्ति’ है; क्योंकि संसारके अभावका बोध न होनेपर
संसारमें आसक्ति होती है, प्रेम नहीं होता और प्रेमके बिना बोध
‘शून्य’ है; क्योंकि संसारका अभाव करते-करते अभाव (शून्य) ही शेष रह
जाता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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