।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७१, शनिवार
असत्‌का वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वास्तवमें काम-क्रोधादि विकारोंकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । विकार और सत्ता परस्परविरोधी हैं । जो विकार है, उसकी सत्ता कैसे ? और जिसकी सत्ता है, उसमें विकार कैसे ? परन्तु अज्ञानवश अपनेमें काम-क्रोधादि विकारोंकी सत्ता माननेसे वे अपनेमें दीखने लग जाते हैं । उनको अपनेमें मानकर उनको मिटानेकी चेष्टा करते हैं तो उनकी सत्ता और दृढ़ होती है[1] । इसी तरह मनको सत्ता दी है, तभी स्कुरणाएँ और संकल्प हैं । स्कुरणा और संकल्प परिवर्तनशील हैं । सत्तामें परिवर्तन नहीं होता और जिसमें परिवर्तन होता है, उसकी सत्ता नहीं होती ।

जिसका सदा ही अभाव है, उसकी सत्ता भूलसे मानी हुई, दी हुई है । मानी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, कल्पना की हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, दी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती । इसी तरह संसारकी सुनी हुई, कही हुई और चिन्तन की हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती; क्योंकि वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । परन्तु स्वयं सत्-स्वरूप है; अतः यह जिसकी सत्ता मान लेता है, उसकी सत्ता दीखने लग जाती है; जैसे‒अग्निमें लकड़ी, कोयला, कंकड़ पत्थर, ठीकरी आदि जो भी रखें, वही चमकने लग जाता है ।

असत्‌का भान तो हो सकता है, पर उसकी सत्ता नहीं हो सकती । कारण कि जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव है, उसका सदा-सर्वत्र अभाव-ही-अभाव है । परन्तु सत्-तत्त्व परमात्माका किसी भी देशमें अभाव नहीं है, किसी भी कालमें अभाव नहीं है, किसी भी क्रियामें अभाव नहीं है, किसी भी वस्तुमें अभाव नहीं है, किसी भी व्यक्तिमें अभाव नहीं है, किसी भी अवस्थामें अभाव नहीं है, किसी भी परिस्थितिमें अभाव नहीं है, किसी भी घटनामें अभाव नहीं है । जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव नहीं है, उसका सदा-सर्वत्र भाव-ही-भाव है‒नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे

[1] यहाँ एक शंका होती है कि यदि काम-क्रोधादि विकारोंकी सत्ता ही नहीं है तो फिर उनको अपनेमें मान लेनेसे साधकका पतन कैसे हो जाता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे कोई भयंकर स्वप्न आता है तो नींद खुलनेके बाद भी हृदयमें धड़कन, शरीरमें कँपकँपी आदि होते हैं अर्थात् स्वप्नकी घटनाका प्रभाव जाग्रत्‌में पड़ता है, ऐसे ही सत्ता न होनेपर भी अपनेमें मान लेनेके कारण काम-क्रोधादि विकार साधकका पतन कर देते हैं । पतन होनेका अर्थ है‒पहले जैसी स्थिति थी, वैसी स्थिति न रहना; साधकपनेका न रहना । जब साधकपना नहीं रहेगा तो फिर साध्यकी प्राप्ति कैसे होगी ? जैसे पतनकी बात है ऐसे ही उत्थानकी भी बात है । अद्वैत तत्त्वमें गुरु-शिष्यका भेद नहीं है, पर गुरु-शिष्यके संवादसे शिष्यको तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है ।