।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
भगवत्तत्त्व



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

वह तत्त्व ही संसाररूपसे भास रहा है । परंतु जबतक उधर दृष्टि नहीं जाती, तबतक संसार-ही-संसार दीखता है, तत्त्व नहीं । जैसे, जबतक यह गंगाजी हैं’इस तरफ दृष्टि नहीं जाती, तबतक वह साधारण नदी ही दीखती है । परमात्मतत्त्व तत्त्वदृष्टिसे ही देखा जा सकता है ।

तीन प्रकारकी दृष्टियाँ

मनुष्यकी दृष्टियाँ तीन प्रकारकी हैं‒(१) इन्द्रियदृष्टि (बहिःकरण)[1], (२) बुद्धिदृष्टि (अन्तःकरण)[2] और (३) तत्त्वदृष्टि (स्वरूप)[3]‒ये तीनों दृष्टियाँ क्रमशः एक-एकसे सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ हैं ।

संसार असत् और अस्थिर होते हुए भी इन्द्रियदृष्टिसे देखनेपर सत् एवं स्थिर प्रतीत होता है, जिससे संसारमें राग हो जाता है । बुद्धिदृष्टिमें वस्तुतः विवेक ही प्रधान है । जब बुद्धिमें भोगों-(इन्द्रियों तथा उनके विषयों-) की प्रधानता नहीं होती, अपितु विवेककी प्रधानता होती है, तब बुद्धिदृष्टिसे संसार परिवर्तनशील और उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला दीखता है, जिससे संसारसे वैराग्य हो जाता है ।

जड-चेतन, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दो वस्तुओंके अलग-अलग ज्ञानको विवेक’ कहते हैं । यह विवेक प्राणिमात्रमें स्वतः विद्यमान है । पशुपक्षियोंमें शरीर-निर्वाहके योग्य ही (खाद्य-अखाद्यका) विवेक रहता है; परंतु मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे जाग्रत् होता है । विवेक अनादि है । भगवान् कहते हैं‒

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
                                               (गीता १३ । १९)

प्रकृति और पुरुष‒इन दोनोंको ही तू अनादि जान ।’

इस श्लोकार्द्धमें आये उभौ’ (दोनों) पदसे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, वैसे ही इन दोनोंका भेद ज्ञानरूप विवेक भी अनादि है । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ (गीता २ । १६) तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्-असत् दोनोंका ही तत्त्व देखा है’इस श्लोकार्द्धमें आये उभयोः’ पदसे भी यही बात सिद्ध होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


[1] यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
              अतत्त्वार्थवदल्पं च  तत्तामसमुदाहृतम् ॥
                                      (१८  । २२)

[2] सर्वभूतेषु    येनैकं          भावमव्ययमीक्षते ।
   विभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
                                                   (१८ । २०)

[3] बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
              वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
                                                            (७ । १९)