।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
भगवत्तत्त्व



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

यदि साधककी समझमें यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्गसे भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो सकती है[1] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । उनका कभी कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनताका प्रश्र ही नहीं है । नित्यप्राप्त परमात्माकी प्राप्तिमें कठिनाई प्रतीत होनेका प्रधान कारण है‒सांसारिक सुखकी इच्छा । इसी कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको परिश्रम-साध्य एवं कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनता नहीं है, प्रत्युत संसारके त्यागमें कठिनता है, जो कि निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्वका सुगमतासे अनुभव करनेके लिये संसारसे माने हुए संयोगका वर्तमानमें ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है, जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुखकी इच्छाका परित्याग कर दिया जाय ।

तत्त्व-दृष्टिसे एक परमात्मतत्त्वके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं-ऐसा ज्ञान हो जानेपर मनुष्य फिर जन्म-मरणके चक्रमें नहीं पड़ता । भगवान् कहते हैं‒

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
                                                  (गीता ४ । ३५)

‘जिसे जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।’


[1] कर्मयोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒

ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि  महाबाहो   सुखं   बन्धात्प्रमुच्यते ॥
                                                           (गीता ५ । ३)

हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाश करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।’

ज्ञानयोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒

युञ्जन्नेवं सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन   ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं    सुखमश्नुते ॥
                                                       (गीता ६ । २८)

अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है ।’

भक्तियोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                         (गीता ८ । १४)

हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुगमतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’

[ इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित गीता-दर्पण’ पुस्तकमें ‘गीतामें तीनों योगोंकी समानता’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । ]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे