(वासुदेवः सर्वम्) 
भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व वह
तत्त्व है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार
या परिवर्तन नहीं होता, जो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है, जो सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप है और जो जीवमात्रका वास्तविक स्वरूप है । वह एक ही तत्त्व
निर्गुण-निराकार होनेसे ‘ब्रह्म’, सगुण-निराकार होनेसे ‘परमात्मा’ तथा सगुण-साकार होनेसे ‘भगवान्’ नामसे कहा जाता है‒ 
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यन्सानमद्वयम्
। 
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते
॥ 
                                     (श्रीमद्भागवत
१ । २ । ११) 
वही एक तत्त्व संसारमें अनेक रूपोंसे
भास रहा है । जिस प्रकार स्वर्णसे बने गहनोंमें नाम, आकृति, उपयोग, तौल और मूल्य अलग-अलग होते हैं एवं ऊपरसे मीना आदि होनेसे
रंग भी अलग-अलग होते हैं, परंतु इतना होनेपर भी स्वर्णतत्त्वमें
कोई अन्तर नहीं आता, वह वैसा-का-वैसा ही रहता है । इसी प्रकार
जो कुछ भी देखने, सुनने, जाननेमें आता है, उन सबके मूलमें एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है; इसीके अनुभवको गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है (७ । १९) । 
इस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये संसारमें
तीन योग मुख्य माने जाते हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर भगवत्तत्त्वको
प्राप्त हो जाता है‒ 
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते
॥ 
                                               (गीता
४ । २३) 
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति
॥ 
                                                
(गीता ५ । ६)  
ज्ञानयोगमें साधक परमात्माको तत्त्वसे
जानकर उनमें प्रविष्ट हो जाता है‒ 
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्
। 
                                               
(गीता १८ । ५५)  
भक्तियोगमें साधक अनन्यभक्तिसे भगवान्को
तत्त्वसे जान लेता है, उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है और
उनमें प्रविष्ट हो जाता है । गीतामें भगवान् कहते हैं‒ 
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन
। 
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन   प्रवेष्टुं  च  परन्तप
॥ 
                                                       
(११ । ५४) 
साधक अपनी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार चाहे योगमार्गसे
चले, चाहे ज्ञानमार्गसे चले, चाहे भक्तिमार्गसे चले, अन्तमें इन सभी मार्गोंके साधकोंको
एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है । वही एक तत्त्व शास्त्रोंमें अनेक नामोंसे वर्णित
हुआ है । उस तत्त्वका अनुभव होनेके बाद फिर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । 
   (शेष
आगेके ब्लॉगमें) 
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे 
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