।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
कामनाओंके त्यागसे शान्ति



भगवत्प्राप्तिके मार्गमें संसारके भोग और संग्रहकी खास बाधा है । रुपयोंके संग्रहको इतना अधिक आदर दे दिया कि चाहे जीवन बिगड़ जाय, नरकोंमें जाना पड़े, चौरासी लाख योनियोंमें जाना पड़े अपमान, निन्दा, बेइज्जती हो जाय, पर रुपये इकट्ठे करने ही हैं‒यह बहुत बड़ी बीमारी है । दूसरा जो भोग भोगना, सुख भोगना है, यह खास आफत है । इसके कारण मनुष्य अपने अनुभवका आदर नहीं करता; क्योंकि आदरकी जगह रुपयों और सुख-भोगने ले ली । अब भले ही कितनी बातें सीख जाओ, अनुभव नहीं होगा । सीखकर आप पण्डित बन सकते हो । बड़ा भारी व्याख्यान दे सकते हैं, लेखक बन सकते हैं । बड़ी सुन्दर-सुन्दर पुस्तकें लिख सकते हो, परन्तु जो महान् शान्ति है, वह नहीं पा सकते, उसका अनुभव नहीं हो सकता । सीखना और अनुभव करना बिलकुल अलग-अलग चीज है । रात-दिनका फर्क है दोनोंमें । अनुभव तब होगा, जब भोग और संग्रहकी कामना नहीं रहेगी । इतना रुपया और हो जाय, इतना और हो जाय‒ऐसी कामना करते हैं, पर साथ एक कौड़ी भी नहीं चलेगी । एकदम खाली जाना पड़ेगा । शरीर भी यहीं पड़ा रहेगा । यह पहले भी अपना नहीं था और बादमें भी अपना नहीं रहेगा‒प्रत्यक्ष बात है । परंतु कहने-सुननेसे यह बात समझमें नहीं आती । जब व्याकुलता जाग्रत् होगी, भीतरसे भोग और संग्रहसे उपरति होकर जलन पैदा होगी, तब यह बात समझमें आयेगी । जबतक रुपयों और भोगोंसे सुख लेते हैं, तबतक यह बात अक्लमें नहीं आयेगी ।

गीतामें स्थितप्रज्ञ पुरुषके लक्षणोंके आरम्भमें और अन्तमें‒दोनों जगह सम्पूर्ण कामनाओंके त्यागकी बात आयी है । उपक्रममें भगवान्‌ने कहा‒

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
                                                (गीता २ । ५५)
और उपसंहारमें भी वही बात कही‒

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
                                                  (गीता २ । ७१)

भोग और संग्रहकी कामना ही मुख्य है, और इसके आनेपर तो सैकड़ों-हजारों कामनाएँ आ जाती हैं । ये कामनाएँ मनका स्वरूप नहीं हैं बल्कि मनमें आया करती हैं‒‘मनोगतान् ।’ इन सब कामनाओंका त्याग कर दें । यदि आज मृत्यु आ जाय तो मैं जी जाऊँ तो अच्छा है, ऐसी कामना भी पैदा न हो । शरीर बहुत-ही प्यारा लगता है, पर यह जानेवाला है । जो जानेवाला है, उसकी मोह-ममता पहलेसे ही छोड़ दें । यदि पहलेसे नहीं छोड़ी, तो बादमें बड़ी दुर्दशा होगी । भोगोंमें, रुपयोंमें, पदार्थोंमें आसक्ति रह गयी, उनमें मन रह गया, तो बड़ी दुर्दशा होगी । साँप, अजगर बनना पड़ेगा; भूत, प्रेत, पिशाच आदि न जाने क्या-क्या बनना पड़ेगा !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे