।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, रविवार
वटसावित्री-व्रत, श्राद्धकी अमावस्या
कामनाओंके त्यागसे शान्ति



(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक सन्तकी बात हमने सुनी । विरक्त, त्यागी सन्त थे । पैसा नहीं छूते थे और एकान्तमें भजन करते थे । एक भाई उनकी बहुत सेवा किया करता । रोजाना भोजन आदि पहुँचाया करता । एक बार किसी जरूरी कामसे उसे दूसरे शहर जाना पड़ा । तो उसने संतसे कहा कि महाराज ! मैं तो जा रहा हूँ । तो संत बोले कि भैया ! हमारी सेवा तुम्हारे अधीन नहीं है, तुम जाओ । उसने कहा कि महाराज ! पीछे न जाने कोई सेवा करे न करे ? मैं बीस रुपये यहाँ सामने गाड़ देता हूँ, काम पड़े तो आप किसीसे कह देना । बाबाजी ना-ना करते रहे, पर वह तो बीस रुपये गाड़ ही गया । अब वह तो चला गया । पीछे बाबाजी बीमार पड़े और मर गये । मरकर भूत हो गये ! अब वहाँ रात्रिमें कोई रहे तो उसे खड़ाऊँकी खट-खट-खट आवाज सुनायी दे । लोग सोचें कि बात क्या है ? जब वह भाई आया तो उसे कहा गया कि वहाँ रातको खड़ाऊँकी आवाज आती है, कोई भूत-प्रेत है, पर किसीको दुःख नहीं देता । वह रात्रिमें वहाँ रहा । उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने प्रार्थना की तो बाबाजी दीखे और बोले कि मरते वक्त तेरे रुपयोंकी तरफ मन चला गया था । अब इन्हें तू कहीं लगा दे तो मैं छुटकारा पा जाऊँ ! बाबाजीने रुपयोंको काममें भी नहीं लिया पर ‘मेरे लिये रुपये पडे हैं’ इस भावसे ही यह दशा हो गयी । अब वे रुपये वहाँसे निकालकर धार्मिक काममें लगाये गये, तब कहीं जाकर बाबाजीकी गति हुई ।

वृन्दावनकी एक घटना हमने सुनी थी । एक गलीमें एक भिखारी पैसे माँगा करता था । उसके पास एक रुपयेसे कुछ कम पैसे इकट्ठे हो गये थे । वह मर गया । जहाँ उसके चिथड़े पड़े थे, वहाँ लोगोंने एक छोटा-सा साँप बैठा हुआ देखा । उसे कई बार दूर फेंका गया, पर वह फिर उन्हीं चिथड़ोंमें आकर बैठ जाता । जब नहीं हटा तो सोचा बात क्या है ? साँपको दूर फेंककर चिथड़ोंमें देखा, तो उसमेंसे कुछ पैसे मिले । वे पैसे किसी काममें लगा दिये । तो फिर वह साँप देखनेमें नहीं आया ।

यह जो भीतर वासना रहती है, यह बड़ी भयंकर होती है । वासना तब रहती है, जब वस्तुओंमें प्रियता होती है । जहाँ वस्तुओंकी प्रियता या आकर्षण रहता है, वहीं भगवान्‌की प्रियता जाग्रत् होनी चाहिये । आप बाहरसे भले ही कितने बढ़िया-बढ़िया काम करें, पर भीतर संसारकी जो प्रियता या आकर्षण है, वह खतरनाक है । इसलिये भगवान्‌ने सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करनेकी बात कही‒‘विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।’ निःस्पृहका अर्थ है‒निर्वाह कैसे होगा ? मेरा जीवन कैसे चलेगा ? इस प्रकार भी परवाह मनमें नहीं रखे । जीवन तो चलेगा ही । जिन कर्मोंसे शरीर मिला है, उन कर्मोंसे उसका निर्वाह भी होगा । प्रारब्धमें न हो तो धनी व्यक्ति भी ज्यादा भोग नहीं भोग सकेगा, और प्रारब्धमें हो तो साधारण व्यक्तिको भी भोग मिल जायेंगे । नहीं मिलनेवाला नहीं मिलेगा और मिलनेवाला मिलेगा ही । मनमें जो प्रियता है, वह बाधक है । वह नहीं होगी, तो भी रुपये, वस्तु, आदर, महिमा आदि मिलेगी । निर्वाहकी चीज तो अपने-आप मिलेगी, आप जो आशा करते हैं यहीं गलती होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे