।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
मानवशरीरका सदुपयोग



मानवशरीरकी जो महिमा है, वह आकृतिको लेकर नहीं है, प्रत्युत विवेकको लेकर ही है । सत् और असत्‌, जड़ और चेतन, सार और असार, कर्तव्य और अकर्तव्य‒ऐसी जो दो-दो चीजें हैं, उनको अलग-अलग समझनेका नाम ‘विवेक’ है । यह विवेक परमात्माका दिया हुआ और अनादि है । इसलिये यह पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत् होता है । सत्संगसे यह विवेक जाग्रत् और पुष्ट होता है । सत्संगमें भी खूब ध्यान देनेसे, गहरा विचार करनेसे ही विवेक जाग्रत् होता है, साधारण ध्यान देनेसे नहीं होता । आजकल प्रायः यह देखनेमें आता है कि सत्संग करनेवाले, सत्संग करानेवाले, व्याख्यान देनेवाले भी गहरी पारमार्थिक बातोंको समझते नहीं । वे जड़-चेतनके विभागको ठीक तरहसे जानते ही नहीं । थोड़ी जानकारी होनेपर व्याख्यान देने लग जाते हैं । जिनका विवेक जाग्रत् हो जाता है, उनमें बहुत विलक्षणता, अलौकिकता आ जाती है ।

साधकको सबसे पहले शरीर जड़ और शरीरी (-चेतन)-का विभाग समझना चाहिये । शरीर और शरीरीसे आरम्भ करके संसार और परमात्मातक विवेक होना चाहिये । शरीर और शरीरीका विवेक मनुष्यके सिवाय और जगह नहीं है । देवताओंमें विवेक तो है, पर भोगोंमें लिप्त होनेके कारण वह विवेक काम नहीं करता ।

शरीर और शरीरीके विभागको जाननेवाले मनुष्य बहुत कम हैं । इसलिये सत्संगके द्वारा इस विभागको जाननेकी खास जरूरत है । शरीर जड़ है और स्वयं (आत्मा) चेतन है । स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर प्रकृतिका अंश है । चेतन अलग है और जड़ अलग है । मुक्ति चेतनकी होगी, जड़की नहीं; क्योंकि बन्धन चेतनने स्वीकार किया है । जड़ तो हरदम बदल रहा है और नाशकी तरफ जा रहा है । हमारी जितनी उम्र बीत गयी है, उतने दिन तो हम मर ही गये हैं । ‘मरना’ शब्द भले ही खराब लगे, पर बात सच्ची है । जन्मके समय जीनेके जितने दिन बाकी थे, उतने दिन अब बाकी नहीं रहे । जितने दिन बीत गये, उतने दिन तो मर गये, अब कितने दिन बाकी हैं, इसका पता नहीं है । जीवनका जो समय चला गया, नष्ट हो गया, वह जड़-विभागमें हुआ है, चेतन-विभागमें नहीं । चेतन-विभागमें मृत्यु नहीं है । उसकी कोई उम्र नहीं है । वह अमर है । शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरता । इस प्रकार आरम्भसे ही जड़-चेतनके विभागको समझ लेना चाहिये । जो चेतन-विभाग है, वह परमात्माका है और जो जड़-विभाग है, वह प्रकृतिका है । गीतामें आया है‒

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । (१३ । १९)

          प्रकृति और पुरुष‒दोनों अनादि तो हैं, पर दोनोंमें पुरुष (चेतन) अनादि तथा अनन्त है, और प्रकृति अनादि तथा सान्त है । कई विद्वान् प्रकृतिको भी अनन्त मानते हैं, पर यह दार्शनिक मतभेद है । यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि जो अपनेको भी नहीं जानता और दूसरेको भी नहीं जानता, उसका नाम ‘जड़’ है । जो अपनेको भी जानता है और दूसरेको भी जानता है, उसका नाम ‘चेतन’ है । जाननेकी शक्ति चेतनता है । यह शक्ति जड़में नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे