।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
श्रीगंगादशहरा, एकादशी-व्रत कल है
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

मन-बुद्धि चेतनमें दीखते हैं, पर हैं ये जड़ ही । ये चेतनके प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं । हम (स्वयं) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको जाननेवाले हैं । इन्द्रियोंके दो विभाग हैं‒कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ । कर्मेन्द्रियाँ तो सर्वथा जड़ हैं और ज्ञानेन्द्रियोंमें चेतनका आभास है । उस आभासको लेकर ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण‒ये पाँचों इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ’ कहलाती हैं । ज्ञानेन्द्रियोंको लेकर जीवात्मा विषयोंका सेवन करता है‒

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय   मनश्चायं   विषयानुपसेवते ॥
                                        (गीता १५ । ९)

ज्ञानेन्द्रियोंमें और अन्तःकरणमें जो ज्ञान दीखता है, वह उनका खुदका नहीं है, प्रत्युत चेतनके द्वारा आया हुआ है । खुद तो वे जड़ ही हैं । जैसे दर्पणको सूर्यके सामने कर दिया जाय तो सूर्यका प्रकाश दर्पणमें आ जाता है । उस प्रकाशको अँधेरी कोठरीमें डाला जाय तो वहाँ प्रकाश हो जाता है । वह प्रकाश मूलमें सूर्यका है, दर्पणका नहीं । ऐसे ही इन्द्रियोंमें और अन्तःकरणमें चेतनसे प्रकाश आता है । चेतनके प्रकाशसे प्रकाशित होनेपर भी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण जड़ हैं । हम स्वयं चेतन हैं और परमात्माके अंश हैं । गीतामें भगवान् कहते हैं‒ममैवांशो जीवलोके’ (१५ । ७) । जैसे शरीर माँ और बाप दोनोंसे बना हुआ है, ऐसे स्वयं प्रकृति और परमात्मा दोनोंसे बना हुआ नहीं है । यह केवल परमात्माका ही अंश है । भगवान्‌ने कहा है‒

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
                                            (गीता १४ । ३)

तासौ ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
                                        (गीता १४ । ४)

अर्थात् प्रकृति माता है और मैं उसमें बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ, जिससे सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं । अतः प्राणियोंमें प्रकृतिका अंश भी है और परमात्माका भी । परन्तु जो जीवात्मा है, उसमें केवल परमात्माका ही अंश है‒ममैवांशः’ (मम एव अंशः) । देवता, भूत-प्रेत, पिशाच आदि जितने भी शरीर हैं, उन सबमें जड़ और चेतन‒दोनों रहते हैं । देवताओंके शरीरमें तैजस-तत्त्वकी प्रधानता है, भूत-प्रेतोंके शरीरमें वायु-तत्त्वकी प्रधानता है मनुष्योंके शरीरमें पृथ्वी-तत्त्वकी प्रधानता है, आदि । भिन्न-भिन्न शरीरोंमें भिन्न-भिन्न तत्त्वकी प्रधानता रहती है । यद्यपि सभी शरीरोंमें मुख्यता चेतनकी ही है, पर वह शरीरमें मैं-मेरापन करके उसीको मुख्य मान लेता है । जड़ शरीरकी मुख्यता मानना ही जन्म-मरणका कारण है‒कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’(गीता १३ ।२१) । 

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे