।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.२०७२, मंगलवार
भौमवती अमावस्या
भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌में अज्ञता, जड़ता, भूल, आलस्य, प्रमाद, असावधानी, भ्रम आदि किसी भी दोषकी तनिक भी सम्भावना न होने तथा ज्ञान, चेतनता, सावधानी और विज्ञता आदिके स्वाभाविक ही अविचलरूपसे नित्य विद्यमान रहनेके कारण उनके कर्म अत्यन्त ही उज्ज्वल होते हैं ।

इसलिये उनके लीला-कर्मोंका तथा गीतादि परम रहस्यमय उपदेशोंका संसारमें जितना ही श्रवण, मनन, पठन, कथन, कीर्तन आदिके द्वारा विस्तार किया जाता है, उतना ही प्राणिमात्रके हृदयमें अज्ञान, अन्धकार, जड़ता आदिका विनाश होकर परम दिव्य प्रकाशमय ज्ञानका साम्राज्य छा जाता है । जब लोगोंके हृदयमें भी उनके लीलाकर्म और उपदेशके श्रवणादिसे इतना दिव्य प्रकाश छा जाता है तब फिर उनके स्वयं परम दिव्य प्रकाशमय होनेमें तो सन्देह ही क्या है ।

वे प्रेममय भगवान् जिनके साथ जो कुछ भी व्यवहार करते हैं, उसमें निष्काम प्रेम और अहैतुकी कृपा भरी रहनेके कारण जिनके साथ व्यवहार किया जाता है, वे प्राणी परम आह्लादित हो जाते हैं । भगवान् जिस तरफ देखते हैं, वह सारी दिशा प्रेम और आनन्दमय बन जाती है । उनकी देखी हुई वस्तुओंमें, उनकी क्रीड़ा की हुई भूमिमें इतना आनन्द और प्रेम भरा हुआ है कि हजारों-लाखों वर्षोंतक उनसे लोगोंको परम लाभ होता रहता है । भावुक प्रेमी भक्त उन लीलास्थलियोंमें निवास करते हैं और जन्म-मरणादि सांसारिक दुःखोंसे सर्वथा मुक्त होकर उस परमानन्दका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।

जो भगवान्‌के अनुकूल होकर प्रेम रखते हुए श्रद्धा-बुद्धिसे उनके दर्शनादि करते हैं, उनके आनन्दलाभमें तो कहना ही क्या है; जो द्वेषभावसे भगवान्‌से विरोध रखकर विपरीत आचरणोंमें ही लगे रहते हैं, उनको भी भगवान् दयापरवश हो अपने हाथोंसे मारकर अपना परम दिव्य आनन्दमय धाम प्रदान करते हैं । उनकी मारने आदि क्रियाओंमें भी परम कल्याण भरा रहता है, इसलिये उनकी सम्पूर्ण क्रियामात्र ही आनन्दमय है ।

लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।
तद्वदेव  महेशस्य   नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥

जिस प्रकार माताकी बालकपर उसके पालन करने और ताड़ना देनेमें कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार गुण-दोषोंपर नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती ।’

पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान्‌के सभी कर्म निःस्वार्थभावसे होते हैं । उनमें कहीं भी जरा भी स्वार्थ नहीं होता । केवल प्राणियोंपर अकारण करुणा करनेके लिये ही वे निःस्वार्थभावसे कर्मोंका आचरण किया करते हैं । उनको अपने लिये कुछ भी कर्तव्य अथवा प्राप्तव्य नहीं होता तो भी वे लोकसंग्रहार्थ जगत्‌के हितके लिये ही कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं । भगवान् गीतामें स्वयं कहते हैं‒

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं    वर्त  एव  च  कर्मणि ॥
                                                   (३ । २२)

हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बर्तता हूँ ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे