।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवोंके शरीर तो अनित्य, पापमय, रोगग्रस्त, लौकिक, विकारी, पाञ्चभौतिक और रज-वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले होते हैं और परमात्माका वह साकार विग्रह नित्य, पाप-पुण्यसे रहित, अनामय, अप्राकृत, विकाररहित, विशुद्ध, परम दिव्य और प्रेममय होता है; अन्य जीवोंकी अपेक्षा तो देवताओंका शरीर भी दिव्य होता है; परन्तु भगवान्‌का स्वरूप उससे भी अति दिव्य विलक्षण होता है, जिसका देवतालोग भी दर्शन चाहते रहते हैं । (गीता ११ । ५२)

भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्ण जब इस धरातलपर अवतरित हुए, उस समय वे माता कौसल्या और देवकीके गर्भसे उत्पन्न नहीं हुए । पहले उनको अपने शङ्ख चक्र, गदा, पद्मधारी स्वरूपका दर्शन देकर फिर वे ही माताकी प्रार्थनासे बालरूपमें लीला करने लगे ।

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं‒

भए   प्रगट  कृपाला   दीनदयाला    कौसल्या  हितकारी ।
हरषित  महतारी  मुनि मन हारी अद्भुत  रूप  बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा  निज आयुध भुज चारी ।
भूषन  बनमाला    नयन  बिसाला   सोभासिंधु   खरारी ॥
माता  पुनि  बोली  सो  मति  डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला  अति प्रियसीला  यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना  रोदन  ठाना  होइ  बालक  सुरभूपा ।

उपसंहर विश्वात्मन्नदो  रूपमलौकिकम् ।
शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥
                                       (श्रीमद्भा १० । ३ । ३०)

माता देवकीने कहा‒‘विश्वात्मन् शंख, चक्र, गदा और पद्मकी शोभासे युक्त इस चार भुजाओंवाले अपने अलौकिक‒दिव्यरूपको अब छिपा लीजिये ।’

जब भगवान् श्रीराम परमधाम पधारने लगे, उस समय वे अन्तर्धान हुए थे । मनुष्य-देहकी भाँति उनका देह यहाँ नहीं रहा, वे इसी शरीरसे वैकुण्ठधाममें चले गये ।

पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्चित्य महामतिः ।
विवेश  वैष्णवं तेजः   सशरीरः   सहानुजः ॥
                              (वा राउत्तरकाण्ड ११० । १२)

‘महामति भगवान्‌ने पितामह ब्रह्माजीके वचन सुनकर और तदनुसार निश्चय कर तीनों भाइयोंसहित अपने उसी शरीरसे वैष्णव-तेजमें प्रवेश किया ।’

भगवान् श्रीकृष्णके लिये भी ऐसे ही वचन मिलते हैं ।

लोकाभिरामां   स्वतनुं    धारणाध्यानमङ्गलम् ।
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम् ॥
                                       (श्रीमद्भा ११ । ३१ । ६ )

‘धारणा और ध्यानके लिये अति मंगलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्तिको योग-धारणाजनित अग्निके द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान्‌ने अपने धाममें प्रवेश किया ।’

भगवान्‌के सृष्टिके सृजन, पालन, संहार आदि तथा अपने अवतारलीला आदि जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी परम दिव्य, उज्जल, प्रकाशमय, आनन्दमय, विशुद्ध एवं अलौकिक होते हैं । भगवान्‌के समान कर्म साधारण मनुष्य तो कर ही क्या सकता है; ऋषि, मुनि, देवता और महात्मा भी नहीं कर सकते । जीवन्मुक्त और कारक पुरुषोंकी भी क्रियाएँ भगवान्‌की-जैसी नहीं होतीं । भगवान्‌के कर्म इन सभीकी अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण और अद्भुत होते हैं, वैसे कर्म चाहे कोई कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो नहीं कर सकता । कारण यह है कि अन्य लोगोंमें शक्ति, विद्या, प्रभाव, ऐश्वर्य आदि परिमित होते हैं और वे भी भगवान्‌के दिये हुए तथा उस सर्वशक्तिस्रोतके अंशमात्रसे ही प्रकाशित होते हैं । अतः उन सर्वैश्वर्यसम्पन्न अमित प्रभावशाली भगवान्‌के कर्म उन सबकी अपेक्षा सब प्रकारसे विलक्षण, दिव्य और अद्भुत होते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे