।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, गुरुवार
शाष्त्रीय विवादसे हानि


शास्त्रोंमें कहीं-कहीं आयी कुछ बातोंको लेकर प्रायः लोग अनेक शंकाएँ किया करते हैं । कुछ लोग उन बातोंको लेकर बड़ा विवाद खड़ा कर देते हैं । शास्त्रोंमें अनेक प्रकारकी बातें मिलती हैं, पर सब बातें हमारे मनके, हमारे सिद्धान्तके अनुकूल हों‒ऐसा सम्भव नहीं है । उनमेंसे कुछ बातें प्रक्षिप्त भी हो सकती हैं, पर कौन-सी बात प्रक्षिप्त है और कौन-सी नहीं है‒इसका निर्णय कौन करे ? निर्णय करना भसम्भव है । शास्त्रोंका निर्णय करना मनुष्यकी बुद्धिके बाहरकी बात है । वास्तवमें शास्त्रोंकी सब बातें सबकी समझमें आ भी नहीं सकतीं । अतः कोई बात हमारी समझमें न आये तो इसमें अपनी समझकी कमी न मानकर उस बातको ही सहसा गलत सिद्ध कर देना उचित नहीं है । अपनेको समझदार मानकर अभिमान करनेवाले व्यक्ति ही विवाद खड़ा करते हैं । परन्तु जिनमें अपनी समझदारीका अभिमान नहीं है, जो शास्त्रकी कमी न मानकर अपनी समझकी कमी मानते हैं, वे कभी विवाद खड़ा नहीं करते । ऐसे व्यक्ति भविष्यमें शास्त्रकी बातको समझ भी सकते हैं । इसलिये शास्त्रकी बातोंको लेकर विवाद खड़ा करनेमें न हमारा हित है, न दूसरोंका हित है; न वर्तमानमें हित है, न परिणाममें हित है । उलटे लोगोंमें शास्त्रोंके प्रति अश्रद्धा पैदा हो जायगी, जिससे वे शास्त्रोंकी अमूल्य तथा हितकारक बातोंसे वंचित रह जायँगे !

इतिहासके आधारपर सत्यका निर्णय नहीं हो सकता । कारण कि उस समय समाजकी क्या परिस्थिति थी और किसने किस परिस्थितिमें क्या किया और क्यों किया, किस परिस्थितिमें क्या कहा और क्यों कहा‒इसका पूरा पता नहीं चल सकता । इसलिये इतिहासमें आयी अच्छी बातोंसे मार्गदर्शन तो हो सकता है, पर सत्यका निर्णय विधि-निषेधसे ही हो सकता है । अतः हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये‒इस विषयमें इतिहासको प्रमाण न मानकर शास्त्रके विधि-निषेधकों ही प्रमाण मानना चाहिये । गीतामें भगवान्‌ने कहा है‒

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं    कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
                                                (गीता १६ । २४)

तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है‒ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधिके अनुसार कर्तव्य-कर्म करना चाहिये ।’

इतिहाससे विधि प्रबल है और विधिसे भी निषेध प्रबल है । शास्त्रीय विवादमें पड़ना साधकका काम नहीं है । वह इस विवादमें पड़ जायगा तो फिर साधन कब करेगा ? वास्तवमें जो अपना कल्याण चाहते हैं, जिनमें श्रद्धा-विश्वासकी प्रधानता है, वे शास्त्रीय विवादमें नहीं पड़ते । शास्त्रोंका निर्णय करना कठिन है, पर अपना कल्याण करना सुगम है ! जैसे मनुष्य किसी सरोवरके जलसे अपनी प्यास तो बुझा सकता है, पर पूरे सरोवरका जल ग्रहण करना उसके वशकी बात नहीं है, ऐसे ही मनुष्य शास्त्रोंकी बातोंसे अपना कल्याण तो कर सकता है, पर शास्त्रोंकी सब बातोंको समझना, उसका निर्णय करना उसके वशकी बात नहीं है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे