।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
शाष्त्रीय विवादसे हानि


(गत आगेके ब्लॉगमें)
आजतक बड़े-बड़े विद्वान् आचार्य भी इसका निर्णय नहीं कर सके । इसलिये साधकके लिये इस विवादमें न पड़ना ही बढ़िया है । अगर वह उनका निर्णय करनेमें लगेगा तो इससे लाभ तो कुछ होगा नहीं, पर समय अवश्य बरबाद हो जायगा । आजकल कहाँ इतना समय है ? कहाँ इतना ज्ञान है ? कहाँ इतनी बुद्धि है ? कहाँ इतनी सामर्थ्य है ? कहाँ इतनी योग्यता है ? इसलिये सन्तोंने ठीक ही कहा है‒

जड़ चेतन गुन दोषमय   बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥
                                                 (मानस, बाल ६)

तेरे भावैं जो करो,   भलौ   बुरौ  संसार ।
नारायन’ तू बैठि के अपनौ भुवन बुहार ॥

भगवान्‌ने भी गीतामें शास्त्र-जालको श्रुतिविप्रतिपत्ति’ कहा है[1]  । इसलिये शास्त्रोंमें कोई बात प्रक्षिप्त दीखे अथवा अपनी समझमें न आये, उस बातको निकाल देना अनधिकार चेष्टा है और बड़ी हानिकी बात है । साधकके लिये यही उचित है कि वह शास्त्रीय विवादमें न पड़े और जो बात उसको निर्विवाद दीखे, उसके अनुसार आचरण करो[2] और जो बात विवादास्पद दीखे, उसको छोड़ दे । जैसे, परीक्षामें चतुर विद्यार्थी निर्विवाद प्रश्रोंका उत्तर पहले लिखता है, पीछे विवादास्पद प्रश्नोंपर विचार करता है । अगर वह पहले ही विवादास्पद प्रश्नोंको लेकर बैठ जायगा तो समय निकल जायगा और वह फेल हो जायगा ।

अगर कोई अनुभवी सन्त-महापुरुष दीखे तो उसकी आज्ञाके अनुसार अपना जीवन बनाना सबसे बढ़िया है । सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें भी परस्पर मतभेद होता है; क्योंकि वे वही बात कहते हैं, जो उस समयके अनुसार आवश्यक हो । इसलिये उनकी बातोंमें भी जो बात निर्विवाद हो, उसको अपनाना चाहिये; जैसे‒नामजप, भगवत्स्मरण, सेवा, बुराईका त्याग, किसीका अहित न करना आदि निर्विवाद बातें हैं, जो सब समय पालन करनेयोग्य हैं ।


[1] श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
   समाधावचला बुद्धिस्तदा  योगमवास्थ्यसि ॥
                                            (गीता २ । ५३)
‘जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा ।’

[2] वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।
   एतच्चतुर्विधं   प्राहुः   साक्षाद्धर्मस्य   लक्षणम् ॥
                                               (मनु २ । १२)
वेद, स्मृति, सदाचार और (अपनेमें निष्कामभाव तथा मात्र जीवोंके हितकी दृष्टिसे) जो अपनेको ठीक जँचे‒ये चार धर्मके साक्षात् लक्षण हैं ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे