।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७२, शनिवार
शाष्त्रीय विवादसे हानि


(गत आगेके ब्लॉगमें)
शास्त्रोंमें अनेक देवताओं तथा उनकी उपासनाओंका वर्णन है; क्योंकि सभी मनुष्योंकी समान रुचि, श्रद्धा-विश्वास एवं योग्यता नहीं होती । सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुणकी तारतम्यतासे मनुष्योंकी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यता अलग-अलग होते हैं । इसलिये उनकी उपासनाएँ भी अलग-अलग होती हैं । जैसे भूख सबकी एक होती है और तृप्ति भी सबकी एक होती है, पर भोजनकी रुचि अलग-अलग होनेसे भोजनके पदार्थ भी अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही उपास्य-तत्वकी अप्राप्तिका दुःख और प्राप्तिका आनन्द सबमें एक होनेपर भी उपासनाकी रुचि अलग-अलग होती है । वास्तवमें उपास्य-तत्त्व एक ही है । एकतामें अनेकता और अनेकतामें एकता हिन्दू-संस्कृतिकी विशेषता है । जैसे शरीरके अवयव अनेक होनेपर भी शरीर एक ही होता है, ऐसे ही उपास्यदेव अनेक होनेपर भी उपास्य-तत्त्व एक ही होता है । अनेक उपास्यदेव होनेपर भी साधककी निष्ठा एकमें ही होनी चाहिये । अगर वह अनेक उपासना करेगा तो उसकी एक निष्ठा नहीं होगी और एक निष्ठा हुए बिना सिद्धि नहीं होगी । इसी कारण शास्त्रोंमें जहाँ जिस देवता, तीर्थ आदिका वर्णन हुआ है, वहाँ उसीको सर्वोपरि बताया गया है, जिससे मनुष्यकी निष्ठा एकमें ही हो ! अगर वह अपने साध्यको सर्वोपरि नहीं मानेगा तो उसका साधन सिद्ध नहीं होगा ।

जैसे पतिव्रता स्त्री पतिके सम्बन्धसे सबका आदर-सत्कार करती है, पर उसकी निष्ठा पतिमें ही होती है, ऐसे ही गृहस्थका धर्म है कि वह समय-समयपर (तिथि-त्यौहारपर) सब देवताओंका पूजन करे, आदर करे, पर निष्ठा एककी ही रखे । कुछ लोग अनेक देवी-देवताओंकी उपासना आरम्भ कर देते हैं, पर जब उनके मनमें एक ही देवताकी उपासनाका विचार आता है, तब अन्य देवताओंकी उपासना छोड़नेमें उनको भय लगता है कि कहीं देवता नाराज न हो जायँ, हमारी हानि न कर दें । वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । यदि उद्देश्य कल्याणका हो और निष्कामभाव हो तो एककी उपासना करनेसे दूसरे नाराज नहीं होंगे; क्योंकि मूलमें उपास्य-तत्त्व एक ही है । अनेककी उपासना करनेसे सकामभावकी भी पूर्ति होनी कठिन है । अतः साधकका इष्ट एक ही होना चाहिये ।

यं शैवाः  समुपासते  शिव  इति  ब्रह्मेति  वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध  इति   प्रमाणपटवः   कर्तेति   नैयायिकाः ।
अर्हन्नित्यथ    जैनशासनरताः   कर्मेति    मीमांसकाः
सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
                                              (हनुमन्नाटक १ । ३)

शैव शिवरूपसे, वेदान्ती ब्रह्मरूपसे, बौद्ध बुद्धरूपसे, प्रमाणकुशल नैयायिक कर्तारूपसे, जैन अर्हन्‌रूपसे और मीमांसक कर्मरूपसे जिसकी उपासना करते हैं, वे त्रैलोक्याधिपति श्रीहरि हमें वाच्छित फल प्रदान करें ।’

त्रयी सांख्य योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
                                                (शिवमहिम्न ७) 

हे प्रभो ! वैदिकमत (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद), सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, शैवमत, वैष्णवमत आदि विभिन मत-मतान्तर हैं; इनमें ‘हमारा मत उत्तम, लाभप्रद है’‒इस प्रकार रुचियोंकी विचित्रता (रुचिभेद) के कारण अनेक सीधे-टेके मार्गोंसे चलनेवाले मनुष्योंके लिये एकमात्र प्रापणीय स्थान आप ही हैं । जैसे सीधे-टेढ़े मार्गोंसे बहती हुई सभी नदियाँ अन्तमें समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार सभी मतावलम्बी अन्तमें आपके पास ही पहुँचते हैं ।’

आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारः     केशवं     प्रतिगच्छति ॥
                                                 (लौगाक्षिस्मृति)

जैसे आकाशसे गिरा हुआ जल समुद्रमें ही जाता है, ऐसे ही सम्पूर्ण देवताओंको किया गया नमस्कार परमात्माके पास ही जाता है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे