।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७२, सोमवार
सन्त-महिमा


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
हम इतिहास, भागवत आदि ग्रन्थोंको देखते हैं तो उनमें सन्तों, राजर्षियों, बड़े-बड़े त्यागियों, तपस्वियों तथा प्रेमियोंका वर्णन मिलता है । उनमें भी ठीक-ठीक तत्त्वतक पहुँचनेवाले बहुत ही कम मिलते हैं; फिर आजकलकी तो बात ही क्या है । लोग भजन-ध्यान आदिको फालतू समझने लगे हैं । जो वास्तवमें मनुष्य-जीवनकी सफलता है, उस तत्त्वप्राप्तिको समझते नहीं, इतना ही नहीं, समझना चाहते भी नहीं । इसकी उपेक्षा करते हैं पशुओंकी भाँती ही अपना समय व्यर्थ गवाँ रहे हैं

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः
                                                 (गीता १६ ११)

       नान्यदस्तीति वादिनः ।         (गीता ४२)

काम और भोगके सिवाय कुछ है ही नहीं खानाकमाना और भोगना‒बस, इतना ही सब कुछ है उनके मतमें और कुछ है ही नहीं वे इसीमें उलझे रहते हैं अब उनसे क्या कहा जाय ? सज्जनो ! वे तो पशुओंसे भी नीचे हैं उनको पशुओंके समकक्ष रखा जाय तो पशु नाराज हो सकते हैं कि हमारी बेइज्जती क्यों करते हैं ? हम तो अपने कर्मोंका फल भोगकर मनुष्य-जन्मकी ओर जा रहे हैं । परन्तु पाप करनेवाले मनुष्य तो नरकों एवं नीच योनियोंकी ओर अग्रसर हो रहे हैं यह कितना बड़ा अन्तर है ! इसीलिये कहा गया है‒

बरु भल बास नरक कर ताता
दुष्ट  संग   जनि  देइ  बिधाता
                                     (मानस, सुन्दर ४६ )

नरकोंका निवास अच्छा है, पर विधाता दुष्टोंका संग न दें, क्योंकि नरक भोगनेसे तो पाप नष्ट होते हैं, जब कि दुष्टोंके संगसे पाप पैदा होते हैं और आगे नरकोंकी तैयारी होती है

सज्जनो ! थोड़ा ध्यान दें सन्तोंको पहचाननेमें वे ही समर्थ हैं, जो सच्चे हृदयसे इस मार्गपर चलते हैं केवल अन्धानुकरण ही नहीं करते, प्रत्युत विवेकपूर्वक खूब गहरे उतरकर इन पारमार्थिक विषयोंको अच्छी प्रकार समझते भी हैं इससे भी आगे समझी हुई बातोंको आचरणमें लाते हैं वे सन्तोंको कुछ-कुछ समझ पाते हैं वे भी इतना ही समझ पाते हैं कि ये सन्त हमसे श्रेष्ठ हैं परन्तु ये कहाँतक पहुँच चुके हैं‒यह समझनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है इस बातको या तो वे स्वयं समझते हैं या उनसे भी बढ़कर समझते हैं उनके भगवान्

जैसे सूर्य प्रकाशित होता है तो दिन निकल आता है,  ऐसे ही सन्तोंका संग करनेसे हृदयमें प्रकाश होता है ।  मनुष्यको दीखने लगता है कि मुझमें कहाँ-कहाँ कमी है और इसे कैसे दूर किया जाय ? उपाय सूझने लगते हैं । सन्तोंके संसर्गमात्रसे ही, बिना कहे-सुने, बिना पूछे भी स्वतः ही अन्तःकरणमें विलक्षण भाव पैदा होते हैं एक प्रकारका विलक्षण प्रकाश मिलता है इसलिये जिसको सन्तोंका संग मिल गया हो, उसको अपने ऊपर भगवान्की विशेष कृपा समझनी चाहिये‒

जब द्रवै दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे