।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
सन्त-महिमा



(गत ब्लॉगसे आगेका)

सन्त भगवान्का हृदय हैं जिस प्रकार बूढ़े माँ-बाप अपनी छिपी हुई पूँजी, अपनी विशेष कृपापात्र सन्तानको ही बताते हैं, देते हैं, उसी प्रकार भगवान् अपने प्यारे सन्त जो कि उनके हृदय-धन हैं‒उनके सामने खोलकर रख देते हैं, जिनपर विशेष कृपा करते हैं जैसे सन्तोंके धन भगवान् हैं, ऐसे ही भगवान्के धन सन्त हैं वे जब कृपा करते हैं तो हमें सन्तोंसे मिला देते हैं तथा कहते हैं कि  भाई ! अब तुम सत्संग करो और लाभ ले लो

अब प्रश्न उठता है कि हम तो सन्तोंको पहचान सकते  नहीं, क्या करें ? तो आप भगवान्से सच्चे हृदयसे प्रार्थना करें  कि हे नाथ ! हमें आपके जो प्यारे भक्त हैं, सन्त-पुरुष  हैं‒उनके दर्शन कराइये ऐसे आप भगवान्से कहें अथवा आपके हृदयमें उत्कण्ठा हो जाय तो आपको कोई--कोई सन्त अवश्य ही मिल जायेंगे

जैसे, फल चलकर तोतेके पास नहीं जाता, वरन् तोता स्वयं फलके पास आकर उसे चोंच लगाता है इसी प्रकार सच्चे जिज्ञासुओंको सन्त-महात्मा ढूँढ़ते फिरते हैं  यद्यपि माँसे अधिक आवश्यकता बालकको होती है; किन्तु माँके मनमें बालककी जितनी गरज होती है, उतनी बालकके मनमें माँके लिये नहीं होती जब दूधकी आवश्यकता होती है, तभी वह माँको याद करता है; किन्तु माँ सब समय उसकी याद करती है बच्चेको भूख लगनेपर माँके स्तनोंसे दूध टपकने लगता है, उसी प्रकार सच्चे जिज्ञासुके प्रति  सन्तोंका ज्ञान-अमृत टपकने लगता है वे अपने-आपको रोक नहीं सकते, बस, कोई मिल जाय लेनेवाला

किन्तु संसारके लोग इन बातोंको क्या जानें ? रात-दिन हाय रुपया ! हाय रुपया !! भोग-संग्रह, सुख-आरामक्लब, नाटक-सिनेमा, तड़क-भड़कमें लिप्त मनुष्य क्या समझें इस तत्त्वको इसीलिये सन्त उनसे छिपे रहते हैं‒

हरि हीरा री गाँठड़ी, गाहक बिनु मत खोल
आसी हीरा रो पारखी, बिकसी महँगे मोल

          सच्चे जिज्ञासु, साधक ही इन ज्ञानरूपी हीरोंका मोल समझ सकते हैं इसलिये सन्त-महापुरुष अपनी ज्ञान-गठरी उनके सामने ही खोलते हैं

आज बड़ी उम्रके सभ्य लोग भी खेल-तमाशोमें इकट्ठे होते हैं सिनेमा, क्लब आदिमें जाते हैं कभी यह बच्चोंकी बात थी बड़ी अवस्थाके लोग घरका, समाजका काम करते थे, पारमार्थिक बातोंको सोचते थे, किन्तु आज बड़े-बूढ़े हो जानेपर भी खेल-तमाशोंमें ही लगे रहते हैं । बचपन गया बड़े-बूढ़ोंमें भी अब किसको कहें और कौन सुने नीति-धर्मकी बात ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे