।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, सोमवार
भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्माके सत् चित् आनन्द आदि ‘विधेय’ विशेषण कहे जाते हैं और निराकार, निर्गुण, अव्यय, अविनाशी, अक्रिय, अचल, अद्वैत, अप्रमेय, असीम, अपार, अनादि, अनन्त आदि विशेषण ‘निषेध’ कहे जाते हैं । वास्तवमें परमात्माका निर्गुण स्वरूप लक्षण और विशेषणोंसे रहित ही है । यह कहना भी समझनेके लिये ही है तथापि उस निर्गुण परमात्माके यथार्थ तत्त्वको बुद्धिसे पकड़नेके लिये ये विशेषण ही काम दे सकते हैं; इनके सिवा बुद्धिको परमात्माके नजदीक पहुँचानेके लिये अन्य कोई सहारा नहीं है । इसीलिये उनका वर्णन किया जाता है ।

सत्-तत्त्व

सत् क्या है‒जो हरदम रहे, हर वस्तुमें रहे और हर जगह रहे । भगवान्‌ने भी कहा है‒‘अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः’ (गीता २ । २०)‘यह आत्मा अज, नित्य, शाश्वत और पुराण है ।’ पर शब्दोंके द्वारा कैसे समझाया जाय । आखिर कोई भी समझायेगा तो हमारी भाषाका आश्रय लेकर ही हमें समझा सकता है । इसी तरह श्रुति भगवती भी देश-कालको लेकर ही उसका लक्ष्य कराती है । श्रुति कहती है‒‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा६ ।२।१) इत्यादि ।

‘एकम् एव अद्वितीयम्’‒इन शब्दोंसे उस परमात्माको क्रमशः सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदोंसे रहित बतलाया है । मनुष्य सब एक होते हुए भी व्यक्तिरूपसे एक-एक अलग हैं‒यह सजातीय भेद है । मनुष्य और वृक्ष‒इनमें सजातीयता नहीं है, एक-दूसरेसे भिन्न हैं, अतः यह विजातीय भेद है । ‘यह मेरा हाथ है; पैर है’ इस प्रकार अवयवोंका भेद स्वगत भेद है । परमात्मा इन सब भेदोंसे रहित है । ये भेद प्रकृतिमें हैं, परमात्मा प्रकृतिसे अत्यन्त परे है ।

जिसमें कोई विकार नहीं, भेद नहीं, जो घटता-बढ़ता नहीं, जिसका कभी क्षरण नहीं होता, जिसका कभी कहीं किञ्ञ्चिन्मात्र भी अभाव या परिवर्तन नहीं होता, जो सदा सर्वत्र सर्वथा एकरस, एकरूप और परिपूर्ण रहे और जिसमें कभी तनिक भी विकारकी सम्भावना ही न हो, वह ‘सत्‌’ है ।


उस परमात्माके सिवा जो कुछ भी लौकिक या अलौकिक पदार्थ देखने-सुनने और समझनेमें आते हैं, उन सभीमें विचार करनेपर प्रत्यक्ष यह अनुभव होता है कि एक समयमें ये वस्तुएँ नहीं थीं और किसी समय ये सब नहीं रहेंगी तथा एक देशमें होते हुए भी दूसरे देशमें उन चीजोंका अभाव मालूम होता है एवं वस्तुका भेद तो प्रत्यक्ष है ही । परंतु सत्-स्वरूप परमात्मामें देश, काल, वस्तुका अत्यन्त अभाव होनेके कारण उसके देश-काल-वस्तु-निमित्तक अभावकी कभी सम्भावना भी नहीं हो सकती और स्वरूपसे तो वह परमात्मा सत् यानी नित्य विद्यमान है ही । इसीलिये उसे ‘सत्‌’ कहते हैं । इस ‘सत्‌’ तत्त्वका वर्णन गीताके दूसरे अध्यायके १२, १३, १७, २३, २४, २५; ८वें अध्यायके २०; १२वें अध्यायके ३ और १३वेंके २७वें श्लोकमें विशेषरूपसे किया गया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे