।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

शुद्ध आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
भगवत्-तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
चित्-तत्त्व

‘चित्’ से चेतन, बोध, ज्ञान समझना चाहिये । चेतन वह है, जहाँ जड़ताकी कभी किसी तरह भी जरा भी सम्भावना नहीं है । वह चेतन तो केवल चिन्मय बोधस्वरूप ही है । जड़ताका अत्यन्त अभाव होनेके कारण उसमें ज्ञातापनका आरोप भी नहीं हो सकता । ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, द्रष्टा-दर्शन-दृश्य और प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय आदि भाव भी जिससे स्वाभाविक ही प्रकाशित होते हैं, ऐसा वह चेतन केवल एक दीप्तिमात्र ही है । साधारण लोग प्राण और चेष्टायुक्त जीवोंको चेतन कहते हैं तथा जिसमें प्राण और क्रिया नहीं होती, उसे जड़ कहते हैं; पर परमात्मामें क्रिया और प्राणके सम्बन्धसे होनेवाली चेतनता नहीं है, उसमें तो केवल चिति‒जाननामात्र ही है । तात्पर्य यह कि वहाँ जड़ता, अज्ञान, मोह, अन्धकार आदि कुछ भी नहीं है, केवल चेतनमात्र ही है तथा वह भी स्वाभाविक स्वतः ही है ।

उस चित्-तत्त्वको समझनेके लिये एक बात कही जाती है । संसारमें दो पदार्थ हैं‒(१) दीखनेवाला और (२) देखनेवाला । देखनेवाला चेतन है, दीखनेवाला जड़ है । देखनेवाला द्रष्टा है, दीखनेवाला दृश्य है । दृश्य दृश्य ही रहता है और द्रष्टा द्रष्टा ही । घट-पट आदि संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रकाश करनेवाले नेत्र हैं । घट-पटादिमें परिवर्तन होता है, उनका परस्पर भेद भी है, कभी उनका प्रकाश होता है तो कभी अप्रकाश । किंतु नेत्रोंमें कोई भेद न रहते हुए भी प्रकाशनशक्ति है । नेत्र भी मनके द्वारा प्रकाश्य हैं । अतः नेत्रोंमें भी अन्धता, मन्दता, पटुता आदि धर्म रहते हैं, उन धर्मोंको मन एकरूपसे देखता है । नेत्रोंका विकार मनमें नहीं आता; क्योंकि नेत्र प्रकाश्य हैं और मन उनका प्रकाशक है । मनसे भी आगे बुद्धितत्त्व है, वह एक रहता हुआ ही मनकी संकल्प-विकल्प आदि अनेक वृत्तियोंको निर्विकाररूपसे प्रकाशित करता है । इसलिये बुद्धि प्रकाशक और मन प्रकाश्य है । इसी तरह बुद्धिमें भी अज्ञता, विज्ञता आदि अनेक धर्म रहते हैं । अतः बुद्धि दृश्य और आत्मा द्रष्टा है, क्योंकि बुद्धि और बुद्धिगत विज्ञता-अज्ञता आदि धर्म निर्विकार आत्मासे ही प्रकाशित होते हैं और आत्मा किसीसे भी प्रकाशित नहीं होता । अर्थात् वह मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर आदि किसीका भी विषय नहीं होता । इसलिये वास्तविक द्रष्टा यही है । इसमें भी यह समझनेकी बात है कि आत्माकी द्रष्टा-संज्ञा दृश्यको लेकर ही है । अगर दृश्य नहीं हो तो आत्माकी द्रष्टा-संज्ञा भी नहीं रहती, बल्कि एक चेतनमात्र ही रह जाता है । वह फिर एकदेशीय नहीं रहता; क्योंकि वहाँ दृश्यका‒देश, काल, वस्तुका सर्वथा अभाव है । वही परिपूर्ण ‘चित्’ तत्त्व कहा जाता है । इस चित्-तत्त्वका वर्णन गीतामें ५वें अध्यायके २४; ८वें अध्यायके ८, ९; १३वें अध्यायके १७, ३३ और १५ वें अध्यायके १५वें श्लोकोंमें मुख्यतासे किया गया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे