गीताध्यायस्य निष्कर्षं ज्ञातुमिच्छन्ति
ये जनाः
तैः सुखपूर्वकं ग्राह्यस्ततः सारोऽत्र
लिख्यते ॥
पहला अध्याय
मोहके कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’‒इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो
जाता है । अगर वह मोहके वशीभूत न हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता ।
भगवान् धर्म, परलोक आदिपर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्योंके भीतर प्रायः इन बातोंको
लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्यरूपसे प्राप्त कर्मको
नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जायगा; अगर हम केवल सांसारिक कार्यमें
ही लग जायँगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; व्यवहारमें
लगनेसे परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थमें लगनेसे व्यवहार ठीक नहीं होगा;
अगर हम कुटुम्बको छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुम्बमें ही
बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; आदि-आदि । तात्पर्य है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर मोह, सुखासक्तिके कारण
संसार छूटता नहीं । इसी तरहकी हलचल अर्जुनके मनमें भी
होती है कि अगर मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी;
और अगर मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कर्तव्यच्युत होनेसे मेरे कल्याणमें
बाधा लगेगी ।
दूसरा अध्याय
अपने विवेकको महत्त्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना‒इन दोनों उपायोमेंसे किसी भी एक उपायको
मनुष्य दृढ़तासे काममें लाये तो शोक-चिन्ता मिट जाते हैं ।
जितने शरीर दीखते हैं, वे सभी नष्ट होनेवाले है, मरनेवाले हैं,
पर उनमें रहनेवाला कभी मरता नहीं । जैसे शरीर बाल्यावस्थाको छोड़कर युवावस्थाको
और युवावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाको धारण कर लेता है, ऐसे ही
शरीरमें रहनेवाला एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण कर लेता है । मनुष्य जैसे पुराने
वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्रोंको पहन लेता है, ऐसे ही शरीरमें
रहनेवाला शरीररूपी एक चोलेको छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है । जितनी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, वे पहले नहीं थीं और
पीछे भी नहीं रहेंगी तथा बीचमें भी उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । तात्पर्य है कि
वे परिस्थितियाँ आने-जानेवाली है, सदा रहनेवाली
नहीं है । इस प्रकार स्पष्ट विवेक हो जाय तो हलचल, शोक-चिन्ता नहीं रह सकती । शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार
जो कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो
जाय, उसका पालन कार्यकी पूर्ति-अपूर्ति
और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम (निर्विकार)
रहकर किया जाय तो भी हलचल नहीं रह सकती ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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