।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत
गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
तीसरा अध्याय

इस मनुष्यलोकमें सभीको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान्का अवतार ही क्यों न हो ! कारण कि सृष्टिचक्र अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही चलता है । मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना सिद्धिको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागसे सिद्धिको प्राप्त होता है ब्रह्माजीने सृष्टि-रचनाके समय प्रजासे कहा कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा एक-दूसरेकी सहायता करो, एक-दूसरेको उन्नत करो तो तुमलोग परमश्रेयको प्राप्त हो जाओगे । जो सृष्टिचक्रकी मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसका इस संसारमें जीना व्यर्थ है । यद्यपि मनुष्यरूपमें अवतरित भगवान्के लिये इस त्रिलोकीमें कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करते है । ज्ञानी महापुरुषको भी लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये । अपने कर्तव्यका निष्कामभावपूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाय, तो भी उसका कल्याण है ।

चौथा अध्याय

सम्पूर्ण कर्मोंको लीन करनेके, सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धनसे रहित होनेके दो उपाय हैकर्मोंके तत्त्वको जानना और तत्त्वज्ञानको प्राप्त करना ।


भगवान् सृष्टिकी रचना तो करते हैं, पर उस कर्ममें और उसके फलमें कर्तृत्वाभिमान एवं आसक्ति न होनेसे वे बँधते नहीं । कर्म करते हुए जो मनुष्य कर्मफलकी आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रखते अर्थात् कर्मफलसे सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंको काट देते है । जिसके सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते है, उसके सम्पूर्ण कर्म जल जाते हैं । जो कर्म और कर्मफलकी आसक्ति नहीं रखता, वह कर्मोंमें सांगोपांग प्रवृत्त होता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधता । जो केवल शरीर-निर्वाहके लिये ही कर्म करता है तथा जो कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, वह कर्म करके भी नहीं बँधता । जो केवल कर्तव्यपरम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर्म करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हे । इस तरह कमाँक तत्त्वको ठीक तरहसे जाननेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे रहित हो जाता है । जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाना ही तत्त्वज्ञान है । यह तत्त्वज्ञान पदार्थोंसे होनेवाले यज्ञोंसे श्रेष्ठ है । इस तत्त्वज्ञानमें सम्पूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं । तत्त्वज्ञानके प्राप्त होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता । पापी-से-पापी मनुष्य भी ज्ञानसे सम्पूर्ण पापोंको तर जाता है । जैसे अग्नि समर्ण ईंधनको जला देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्म कर देती है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे