।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
श्रीविश्वकर्मापूजा, चन्द्रदर्शन निषिद्ध
प्रवचन‒१०


(गत ब्लॉगसे आगेका)
दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है‒सुखकी इच्छाका त्याग करना । सुखकी इच्छासे ही दुःख होता है । सुखकी इच्छाका त्याग कर दे तो दुःख होगा ही नहीं । जैसे, बीमार होनेपर, ‘मैं स्वस्थ हो जाऊँ’ ऐसी इच्छा रहनेसे ही दुःख होता है । यदि बीमारीको भगवान्की भेजी हुई तपस्या मानें तो दुःख नहीं होगा । एक व्यक्ति व्रत रखनेके कारण अन्न नहीं खाता और एक व्यक्तिको अन्न नहीं मिलता तो व्रत रखनेवालेको अन्न न मिलनेका दुःख नहीं होता; क्योंकि उसमें अन्न खानेकी इच्छा ही नहीं है । परन्तु अन्न खानेकी इच्छा रहनेपर अन्न न मिले तो दुःख होता है ।

प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो उससे एक तो पापोंका नाश होता है और एक नया विकास होता है । परन्तु दुःखसे दुःखी होनेपर विकास रुक जाता है । सुख आनेपर तो साधनमें बाधा आ सकती है, पर दुःख आनेपर बाधा आ ही नहीं सकती; क्योंकि दुःख अटकानेवाला नहीं है । इसलिये सुख आये या दुःख, नफा हो या घाटा, बीमारी आये या स्वस्थता, आदर हो या निरादर, प्रशंसा हो या निन्दा, प्रत्येक परिस्थितिमें साधकको समान रहना चाहिये । ऐसा सुख आ जाय, इतना नफा हो जाय, ऐसी प्रशंसा हो जाय आदिकी इच्छा रखनेसे वैसा तो होता नहीं, वह मुफ्तमें दुःख पाता रहता है । सुखदायी परिस्थितिमें सुखी होना भी भोग है और दुःखदायी परिस्थितिमें दुःखी होना भी भोग है । परन्तु दोनों परिस्थितियोंका सदुपयोग किया जाय तो भोग नहीं होगा, अपितु योग होगा अर्थात् उसके द्वारा परमात्मासे सम्बन्ध हो जायगा । भोगी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता ।

दुःखदायी परिस्थितिमें भगवान्की स्मृति आयेगी, दूसरेका दुःख कैसा होता है‒इसका अनुभव होगा और दयाका भाव आयेगा । वास्तवमें दुःखदायी परिस्थिति पापोंका फल नहीं, सुखकी इच्छाका फल है । मूल बात तो यही है । दुःखदायी परिस्थितिको भले ही पापोंका फल मान लें, पर दुःखदायी परिस्थितिमें जो सुखकी इच्छा होती है; वह पापोंका फल नहीं, पापोंका कारण है । सुखकी इच्छा ही ‘काम’ है, जिससे सम्पूर्ण पाप होते है (गीता ३ । ३६-३७) । सुख भोगनेसे सुखेच्छा बढ़ती है और सुखेच्छा बढ़नेसे दुःख बढ़ता है । सुखेच्छाका त्याग करनेका उपाय है‒दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव । जैसे, हमारे पास अधिक धन है तो निर्धनोंको सुख कैसे हो ? हमारे पास विद्या अधिक है तो विद्याहीनोंको सुख कैसे हो ? हमारे पास जो भी सुखदायी सामग्री है, वह अपने भोगनेके लिये नहीं है । वह दूसरोंकी सेवा करनेके लिये ही है; दूसरोंके सेवामें लगाना ही उस सामग्रीका सदुपयोग है । सुख और दुःख सदुपयोग करनेसे ही मिटेंगे, भोगनेसे नहीं । सदुपयोग करनेसे हम सुख और दुःख दोनोंसे ऊँचे उठ जायँगे अर्थात् हमारा कल्याण हो जायगा । इसलिये प्रत्येक परिस्थिति हमारे कल्याणका साधन है । कारण कि भगवान्ने मनुष्यजन्म जीवके उद्धारके लिये दिया है । अतः उसे जो सामग्री दी है, वह कल्याणके लिये ही दी है ।

  करी गोपाल की सब होई ।
  जो अपनौं पुरुषारथ मानत,   अति  झूठौ  है सोई ॥
  साधन, मन्त्र, जन्त्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोई ।
  जो कछु लिखिव राखी नँदनंदन मेटि सकै नहि कोई ॥
  दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौ रोई ।
  सूरदास   स्वामी  करुनामय,    स्याम-चरन  मन  पोई ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे