।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
ऋषिपंचमी
प्रवचन‒११


तत्त्वकी प्राप्ति हो जाय और होते ही वह दृढ़ हो जाय ऐसी बात बतायी जाती है । बिलकुल सबके अनुभवकी बात है । जड़ प्रकृति परिवर्तनशील है और चेतन परमात्मतत्त्वमें कभी परिवर्तन नहीं होता । वह सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । न बदलनेवालेका और निरन्तर बदलनेवालेका‒दोनोंका हमें अनुभव है । बचपनसे लेकर अभीतक मैं वही हूँ‒इसमें ‘मैं वही हूँ’ यह अनुभव न बदलनेवालेका है । संसार, शरीर, मनोवृत्ति, भाव, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि बदलनेवाले हैं । यह सबका अनुभव है । परन्तु उन बदलनेवालेको जाननेवाले हम नहीं बदलते । बदलनेवालेमें जब हम स्थित रहते हैं, तब हमें सुख और दुःख होता है‒‘पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।’ (गीता १३ । २०) अर्थात् पुरुष सुख-दुःखके भोगनेमें हेतु होता है । कौन-सा पुरुष ? ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि’ (गीता १३ । २१) अर्थात् प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है । जो हमारी मनोवृत्ति बदलती है, हमारी अवस्था बदलती है, हमारी दशा बदलती है, हमारे भाव बदलते है, हमारी क्रियाएँ बदलती है, हमारी परिस्थितियाँ बदलती है‒इन बदलनेवालोमें जब हम स्थित होते हैं, तब हम प्रकृतिमें स्थित होते है । मनमें जो काम-क्रोध, हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि वृत्तियाँ पैदा होती हैं, उनमें जब हम स्थित होते है, तब हम पराधीन होते है और सुख-दुःखका भोग करते है ।

वास्तवमें एक दुःखके ही दो नाम सुख और दुःख है । जैसे दादकी बीमारी एक है पर उसीके दो नाम खुजली और जलन है । खुजली अच्छी लगती है और जलन बुरी लगती है तो जो अच्छी लगती है वह भी बीमारी है, जो बुरी लगती है वह भी बीमारी है । ऐसे ही बदलनेवालेके साथ मिलकर जो हम सुखी और दुःखी होते है, यह भी एक बीमारी है । बीमारीका मतलब यह कि हम अपने स्वरूपमें स्थित (स्वस्थ) नहीं है, प्रकृतिमें स्थित है । जब हम बदलनेवाली वृत्तियोंमें, भावोंमें, क्रियाओंमें स्थित नहीं होते, इनसे अलग रहते है, तब हम स्वस्थ रहते है । तब हम सुख-दुःखमें समान रहते है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४ । २४) सम्पूर्ण अवस्थाओं, दशाओं, परिस्थितियों और घटनाओंमें हम रहते हैं, यह हमारा अनुभव है । अगर ऐसा नहीं हो तो सम्पूर्ण अवस्थाओं, दशाओं आदिका ज्ञान हमें कैसे होता ? हमें इनका ज्ञान होता है, इससे सिद्ध होता है कि हम रहते है । हमें जाग्रत् स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा, समाधिका ज्ञान होता है । सुख-दुःखका भी ज्ञान होता है । शोक, मोह, चिन्ता, राग, द्वेष आदिका भी हमें ज्ञान होता है तो हम शोक, मोह, चिन्ता, भय, उद्वेग आदिसे रहित है । अगर ऐसा नहीं है तो हमें सुखका अनुभव होगा, दुःखका अनुभव नहीं होगा, हम शोकमें ही रात-दिन रहते हैं तो प्रसन्नताका हमें अनुभव नहीं होगा । परंतु ऐसा है नहीं । अनुकूलता-प्रतिकूलताको लेकर ठीक और बेठीक‒दोनोंका ज्ञान हमें होता है तो वास्तवमें हम ठीक-बेठीकसे ऊँचे है । इस निर्द्वन्द्वतामें हम स्थित हो जायँ तो सुगमतासे मुक्त हो जायँ‒‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥’ (गीता ५ । ३)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे