।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
गीतोक्त सदाचार


(गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवान् घोषणा करते हैं

अपि चेत्सुदुराचारो   भजते  मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
                                                 (गीता ९ । ३०)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’

तात्पर्य है कि बाहरसे साधु न दीखनेपर भी उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरेको केवल भजन ही करना है । स्वयंका निश्चय होनेके कारण वह किसी प्रकारके प्रलोभनसे अथवा विपत्ति आनेपर भी अपने ध्येयसे विचलित नहीं किया जा सकता ।

साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे विचलित होता है, जब वह असत्संसार और शरीरकोहैअर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा सत्‌-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
                                                          (२ । १६)

जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्ने पाँच प्रकारसे किया है ।

() सद्भावे (१७ । २६)
() साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
() प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
                                                (१७ । २६)
() यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
                                                 (१७ । २७)
() कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
                                              (१७ । २७

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे