(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् घोषणा करते हैं‒
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्
।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो
हि सः ॥
(गीता ९ ।
३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण
कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’
तात्पर्य है कि बाहरसे साधु न दीखनेपर भी उसको साधु ही
मानना चाहिये;
क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरेको केवल भजन ही करना
है । स्वयंका निश्चय होनेके कारण वह किसी प्रकारके प्रलोभनसे अथवा विपत्ति आनेपर भी
अपने ध्येयसे विचलित नहीं किया जा सकता ।
साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे
विचलित होता है, जब वह असत्‒संसार और शरीरको
‘है’ अर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्‒संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर
और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा
सत्-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना
है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है‒
नासतो विद्यते भावो नाभावो
विद्यते सतः ।
(२ । १६)
जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको
हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्ने पाँच प्रकारसे किया है ।
(१) सद्भावे (१७ । २६)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ
युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति
चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते
॥
(१७ । २७)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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