।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
श्रीसूर्यषष्ठी-व्रत
गीतोक्त सदाचार


(गत ब्लॉगसे आगेका)

यह सत्-तत्त्व ही सद्गुणों और सदाचारका मूल आधार है । अतः उपर्युक्त सत् शब्दका थोड़ा विस्तारसे विचार करें ।

() सद्भावेसद्भाव कहते हैंपरमात्माके अस्तित्व या होनेपनको । प्रायः सभी आस्तिक यह बात तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति सदासे है और वह अपरिवर्तनशील है । जो संसार प्रत्यक्ष प्रतिक्षण बदल रहा है, उसे हैअर्थात् स्थिर कैसे कहा जाय ? यह तो नदीके जलके प्रवाहकी तरह निरन्तर बह रहा है । जो बदलता है, वह हैकैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि इन्द्रियों, बुद्धि आदिसे जिसको जानते, देखते हैं, वह संसार पहले नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी जा रहा हैयह सभीका अनुभव है । फिर भी आश्चर्य यह है कि नहींहोते हुए भी वह हैके रूपमें स्थिर दिखायी दे रहा है । ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरुद्ध हैं । वह होता, तब तो बदलता नहीं और बदलता है तो हैअर्थात् स्थिर नहीं । इससे सिद्ध होता है कि यह होनापनसंसार-शरीरादिका नहीं है, प्रत्युत सत्-तत्त्व (परमात्मा) का है, जिससे नहीं होते हुए भी संसार हैदीखता है । परमात्माके होनेपनका भाव दृढ़ होनेपर सदाचारका पालन स्वतः होने लगता है ।

भगवान् हैंऐसा दृढ़तासे माननेपर न पाप, अन्याय, दुराचार होंगे और न चिन्ता, भय आदि ही । जो सच्चे हृदयसे सर्वत्र परमात्माकी सत्ता मानते हैं, उनसे पाप हो ही कैसे सकते हैं ?[1] परम दयालु, परम सुहद् परमात्मा सर्वत्र हैं, ऐसा माननेपर न भय होगा और न चिन्ता होगी । भय लगने अथवा चिन्ता होनेपर ‘मैंने भगवान्को नहीं माना’‒इस प्रकार विपरीत धारणा नहीं करनी चाहिये, किंतु भगवान्के रहते चिन्ता, भय कैसे आ सकते हैंऐसा माने । दैवी सम्पत्ति (सदाचार) के छब्बीस लक्षणोंमें प्रथम अभय है (गीता १६ । १)


[1] जो व्यक्ति भगवान्को भी मानता हो और असत्-आचरण (दुराचार) भी करता हो, उसके द्वारा असत्-आचरणोंका विशेष प्रचार होता है, जिससे समाजका बड़ा नुकसान होता है । कारण कि जो व्यक्ति भीतरसे भी बुरा हो और बाहरसे भी बुरा हो, उससे बचना बड़ा सुगम होता है; क्योंकि उससे दूसरे लोग सावधान हो जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति भीतरसे बुरा हो और बाहरसे भला बना हो, उससे बचना बड़ा कठिन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उनका वेश साधुओंका था ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे