(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह सत्-तत्त्व ही सद्गुणों
और सदाचारका मूल आधार है । अतः उपर्युक्त सत् शब्दका थोड़ा विस्तारसे विचार करें ।
(१) ‘सद्भावे’‒सद्भाव कहते हैं‒परमात्माके अस्तित्व या होनेपनको । प्रायः सभी आस्तिक यह बात तो मानते ही हैं
कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति सदासे है और वह अपरिवर्तनशील है । जो संसार
प्रत्यक्ष प्रतिक्षण बदल रहा है, उसे ‘है’
अर्थात् स्थिर कैसे कहा जाय ? यह तो नदीके जलके
प्रवाहकी तरह निरन्तर बह रहा है । जो बदलता है, वह ‘है’ कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि
इन्द्रियों, बुद्धि आदिसे जिसको जानते, देखते हैं, वह संसार पहले नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी जा रहा है‒यह सभीका
अनुभव है । फिर भी आश्चर्य यह है कि ‘नहीं’ होते हुए भी वह ‘है’ के रूपमें
स्थिर दिखायी दे रहा है । ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरुद्ध हैं । वह होता,
तब तो बदलता नहीं और बदलता है तो ‘है’ अर्थात् स्थिर नहीं । इससे सिद्ध होता है कि यह ‘होनापन’
संसार-शरीरादिका नहीं है, प्रत्युत सत्-तत्त्व (परमात्मा) का है,
जिससे नहीं होते हुए भी संसार ‘है’ दीखता है । परमात्माके होनेपनका भाव दृढ़ होनेपर सदाचारका पालन स्वतः होने लगता
है ।
भगवान् हैं‒ऐसा दृढ़तासे माननेपर न पाप, अन्याय, दुराचार होंगे और न चिन्ता, भय आदि ही । जो सच्चे हृदयसे सर्वत्र परमात्माकी
सत्ता मानते हैं, उनसे पाप हो
ही कैसे सकते हैं ?[1] परम दयालु, परम सुहद् परमात्मा सर्वत्र हैं, ऐसा माननेपर न भय होगा
और न चिन्ता होगी । भय लगने अथवा चिन्ता होनेपर ‘मैंने भगवान्को नहीं माना’‒इस प्रकार विपरीत
धारणा नहीं करनी चाहिये, किंतु भगवान्के
रहते चिन्ता, भय कैसे आ सकते हैं‒ऐसा माने
। दैवी सम्पत्ति (सदाचार)
के छब्बीस लक्षणोंमें प्रथम ‘अभय’ है (गीता १६ । १)
।
[1] जो व्यक्ति भगवान्को भी मानता हो और असत्-आचरण (दुराचार) भी करता हो,
उसके द्वारा असत्-आचरणोंका विशेष प्रचार होता है,
जिससे समाजका बड़ा नुकसान होता है । कारण कि जो व्यक्ति भीतरसे भी बुरा
हो और बाहरसे भी बुरा हो, उससे बचना बड़ा सुगम होता है;
क्योंकि उससे दूसरे लोग सावधान हो जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति भीतरसे
बुरा हो और बाहरसे भला बना हो, उससे बचना बड़ा कठिन होता है ।
जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्जीके
सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्जी पहचान
नहीं सके; क्योंकि उनका वेश साधुओंका था ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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