गीता मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी
मानती है और डंकेकी चोटके साथ, खुले शब्दोंमें कहती है कि वर्तमानका दुराचारी-से-दुराचारी, पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीची योनियोंमें जन्मा हुआ पापयोनि और चारों वर्णवाले
स्त्री-पुरुष‒ये सभी भगवान्का आश्रय लेकर परमगातिको प्राप्त हो सकते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीताकी एक बहुत बड़ी विलक्षणता यह है
कि वह किसी मतका खण्डन किये बिना ही उस विषयमें अपनी मान्यता प्रकट कर देती है ।
भगवद्गीतामें अपना उद्धार करनेकी ऐसी-ऐसी विलक्षण, सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं, जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणोंमें ला सकता है ।
गीताकी शिक्षासे मनुष्यमात्रका प्रत्येक परिस्थितमें
सुगमतासे कल्याण हो सकता है ।
एकान्तमें रहकर वर्षोंतक साधना करनेपर ऋषि-मुनियोंको
जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति गीताके अनुसार व्यवहार
करते हुए हो जायगी । सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करना
ही गीताके अनुसार व्यवहार करना है ।
बहुत-से मनुष्य केवल स्थूलशरीरकी क्रियाओंको कर्म
मानते हैं, पर गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है । गीताने
शारीरिक, वाचिक और मानसिकरूपसे की गयी मात्र क्रियाओंको कर्म
माना है‒‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नरः (गीता १८ । १५) ।
स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहाको मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं, अर्थात् उसको राग-द्वेषरहित बना सकते हैं‒यह गीताका
मार्मिक सिद्धान्त है ।
गुरु बनाना या बनना गीताका सिद्धान्त नहीं है । मनुष्य
आप ही अपना गुरु है । इसलिये उपदेश अपनेको ही देना है । जब सब कुछ परमात्मा ही हैं
(वासुदेवः सर्वम्), तो फिर दूसरा गुरु कैसे बने और कौन किसको उपदेश दे
?
निष्पक्ष विचार करनेसे ऐसा दीखता है कि गीतामें
ब्रह्मकी मुख्यता नहीं हे, प्रत्युत ईश्वरकी मुख्यता है ।
गीता फलासक्तिके त्यागपर जितना जोर देती है, उतना
ओर किसी साधनपर नहीं । दूसरे साधनोंका वर्णन करते समय भी कर्मफलत्यागको उनके साथ रखा
गया है ।
एक विलक्षण बात है कि गीतामें जो सत्वगुण कहा
है, वह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्माकी तरफ
ले जानेवला होनेसे ‘सत्’ अर्थात् निर्गुण हो जाता है ।
गीता रजोगुणको क्रियात्मक मानते हुए भी मुख्यरूपसे
रागात्मक ही मानती है‒‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (१४
। ७) । वास्तवमें देखा जाय तो ‘राग’ बाँधनेवाला है, क्रिया
नहीं ।
गीताके अनुसार दूसरेके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञ’ है, हरदम प्रसन्न रहना ‘तप’ हे और उसकी चीज उसीको दे देना ‘दान’ हे । स्वार्थबुद्धिपूर्वक अपने लिये यज्ञ-तप-दान करना आसुरी अथवा राक्षसी स्वभाव
है ।
अगर मरणासन्न व्यक्तिकी गीतामें रुचि हो तो उसको
गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये; क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका विशेषतासे वर्णन
आया है । इसको सुननेसे उसको भगवान्की स्मृति हो जाती है ।
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