(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒महाराजजी, लोग कहते हैं कि सत्संगमें आते पचास-साठ वर्ष हो गये, पर राग-द्वेष
मिटे नहीं !
स्वामीजी‒मैं कहता हूँ कि सौ वर्ष हो गये, आपने राग-द्वेषको मिटाया ही नहीं ! राग-द्वेषको
पकड़कर सौ वर्ष सत्संग कर लो, फिर कहो कि राग-द्वेष तो रहते ही हैं ! राग-द्वेषको
मिटाओगे तो वे मिटेंगे । क्या बिना मिटाये ही मिट जायँगे ? मेरी तो ऐसी धारणा है कि एक दिन भी ठीक तरहसे बात सुने तो उसमें
फर्क पड़ जायगा !
श्रोता‒फर्क पड़नेसे क्या
होगा ? सर्वथा मिटने चाहिये ।
स्वामीजी‒तो जबतक सर्वथा नहीं मिटें, तबतक पिण्ड
मत छोड़ो, इनके पीछे पड़ जाओ ।
अनेक जन्मोंकी पड़ी हुई बातमें एक दिन सुननेसे भी फर्क पड़ता
है तो अनेक जन्मोंकी बात सच्ची हुई या एक दिनकी बात सच्ची हुई ?
श्रोता‒जो मान रखा है, उसको न माननेमें किसीकी कोई जरूरत नहीं है क्या
?
स्वामीजी‒आपकी ही जरूरत है ! आप पकड़े रहोगे तो मैं कह दूँ या ब्रह्माजी कह दें, कुछ फर्क नहीं पड़ेगा । अपनी मानी हुई बातको दूसरा
कैसे मिटा सकता है ? आपने अपनेको गृहस्थी मान रखा है तो
दूसरेके कहनेसे अपनेको गृहस्थी मानना कैसे छोड़ दोगे ? मैं अपनेको साधु मानता हूँ,
पर कोई उपदेश दे कि तुम साधु नहीं हो तो कैसे मान लूँगा मैं
?
श्रोता‒अभी जो आपने कहा, उसको माननेमात्रसे काम चल जायगा ?
स्वामीजी‒माननेके सिवाय और किससे काम चलेगा ? यह मेरी स्त्री है‒ऐसा माननेके सिवाय और कोई प्रमाण हो तो बताओ ! सिर्फ माननेसे बेटा-पोता हो जायगा, सब कुछ हो जायगा ।
एक सीखना होता है, एक अनुभव
करना होता है । नया काम सीखनेमें देरी लगती है, पर जो पहलेसे
ही है, उसका अनुभव करनेमें किस बातकी देरी ? जैसा मैं कहता हूँ,
उसको आप शंकारहित होकर मान लो तो पट दीखने लग जायगा, अनुभव हो जायगा; क्योंकि बात है ही ऐसी । सेठजीने कहा
था कि ज्ञानकी, तत्त्वकी बात कठिन है‒यह
मेरी समझमें नहीं आया; इसमें कठिनता किस बातकी ? कठिनताकी बात ही नहीं है । परन्तु जब लोगोंपर आजमाइश की और देखा कि उनको ज्ञान
हुआ नहीं, तब जबर्दस्ती माना कि कठिन है ! आपने कठिन मान लिया तो अब आपकी मान्यताको कौन छुड़ा सकता
है ? किसकी ताकत है कि छुड़ा दे
?
पंढरपुरमें चातुर्मास हुआ था । उसमें मैंने एक दिन कह
दिया कि तत्त्वकी प्राप्ति तो बड़ी सरल बात है । इसको सुनकर कुछ लोग कहने लगे कि तुकारामजी
महाराजने ऐसा-ऐसा कहा है, तत्त्वप्राप्तिमें तो कठिनता है । तब मैंने
एक बात कही कि मैं मराठी जानता नहीं, महाराष्ट्रके सन्तोंकी वाणी
मैंने पढ़ी नहीं; परन्तु मेरी एक धारणा है कि ज्ञानेश्वरजी,
तुकारामजी आदि सन्तोंको भगवत्प्राप्ति हुई थी, वे तत्त्वज्ञ पुरुष थे । तत्त्वज्ञ पुरुषके भीतर
यह भाव रह सकता ही नहीं कि तत्त्वप्राप्ति कठिन है । अतः उनकी वाणीमें ‘तत्त्वकी प्राप्ति
सुगमतासे होती है’‒यह बात नहीं
आये, ऐसा हो ही नहीं सकता ! उनकी वाणीमें
यह बात जरूर आयेगी कि तत्त्वप्रासि सुगम है । इतनेमें
एक आदमी बोल गया वाणी कि ऐसे सुगम लिखा है उसमें ! लिखे बिना
रह सकते नहीं । जो वास्तविक बात है, उसको वे कैसे छोड़ देंगे
? तत्त्वको बनाना थोड़े ही है, वह तो ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । फिर उसकी प्राप्तिमें कठिनता किस बातकी ? राग-द्वेष हमारेमें हैं‒यह मान्यता
दृढ़ कर ली है, इसीलिये तत्त्वकी प्राप्ति कठिन दीखती है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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