(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒राग-द्वेषका आना-जाना बन्द
हो जाय‒ इसका भी कोई उपाय है ?
स्वामीजी‒यह हो जायगा । पहले विवाह हो जाय, फिर बेटा हो जायगा,
पोता हो जायगा, पड़पोता हो जायगा; सब हो जायगा । अगर आप स्वीकार कर लो कि राग-द्वेष हमारेमें
नहीं हैं तो इतनी भी देरी नहीं लगेगी । कारण कि बेटा-पोता तो
पैदा होंगे; उसमें समय लगेगा । परन्तु इसमें समय नहीं लगेगा;
क्योंकि परमात्मा पैदा होनेवाले नहीं हैं, वे तो
सदा मौजूद हैं । पैदा होनेवाले तो राग-द्वेष हैं । राग-द्वेषको आदर देनेसे ही परमात्माका अनुभव नहीं हो रहा है । इसलिये कम-से-कम यह बात तो मान लो कि ये हमारेमें नहीं हैं,
आगन्तुक हैं । अपना जो स्वरूप है वह सत्तारूप है । सत्तामात्रमें कभी
राग-द्वेष होते ही नहीं ।
श्रोता‒बात तो ठीक है कि
ये आगन्तुक हैं ।
स्वामीजी‒यों हाँ-में-हाँ नहीं मिलाना है । एकान्तमें बैठकर आप इसका अनुभव करो कि बात ठीक है ये
आते-जाते रहते हैं और मैं निरन्तर रहता हूँ ।
श्रोता‒ऐसा स्पष्ट अनुभव
होता है कि ये हमारेसे अलग हैं ।
स्वामीजी‒इस अनुभवका आदर करो, असरका आदर मत करो अन्नदाता
! इतना कहना मेरा मान लो कि असरको महत्त्व मत दो, प्रत्युत इस बातको महत्त्व दो कि ये मेरेसे अलग
हैं ।
श्रोता‒मार तो पड़ जाती
है न महाराजजी ?
स्वामीजी‒मैं कहता हूँ कि पड़ने दो । बचपनमें
पढ़ाई बहुत बुरी लगती थी, पर बैठे-बैठे पढ़ाई हो गयी कि नहीं
? एक दिन वह था, जब पता नहीं लगता था कि दूसरा
क्या कह रहा है, पर आज मैं आपको पढ़ानेको तैयार हूँ !
श्रोता‒स्वामीजी ! आपने बताया कि पदार्थ तो आने-जानेवाले हैं, लेकिन उनका सम्बन्ध स्वयंमें है
!
स्वामीजी‒सम्बन्ध माना है बाबा, है नहीं ! मैंने कभी नहीं कहा कि सम्बन्ध स्वयंमें है । मैंने
कहा है कि सम्बन्ध आपने माना है । जो माना है उसको आप छोड़ो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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