किसीकी बातका खण्डन करनेसे आपसमें संघर्ष बढ़ता है । हम दूसरेके
मतका खण्डन करेंगे तो वह हमारे मतका खण्डन करेगा, जिससे कलह ही बढ़ेगा । अतः हो सके तो दूसरेको
शान्तिपूर्वक अपनी बातका, अपने सिद्धान्तका तात्पर्य बताओ और
यदि वह सुनना नहीं चाहे तो चुप हो जाओ । अपनी हार भले ही मान लो, पर संघर्ष मत करो । सरदारशहरके ‘टीचर-ट्रेनिंग-कालेज’ की एक बात है । वहाँ एक सज्जनने कहा कि देशका
जितना नुकसान हुआ है, वह सब ईश्वरवादसे, आस्तिकवादसे ही हुआ है
। मैं चुप रहा तो उन्होंने कहा कि ‘बोलो !’ तो मैंने कहा कि ‘आपने
अपना सिद्धान्त कह दिया । आपको मेरा सिद्धान्त मान्य नहीं है और मुझे भी आपका सिद्धान्त
मान्य नहीं है । अब बोलनेकी जगह ही नहीं है और जरूरत भी नहीं है ।’ इस तरह हमारेपर
कोई आक्रमण कर दे तो सह लो । सहनेसे, निर्विकार रहनेसे अपना मत, सिद्धान्त मजबूत होता
है, संघर्षसे नहीं । निर्विकार रहनेमें जो शक्ति है, वह और किसी उपायमें नहीं है । आपसे अपने इष्टकी
निन्दा न सही जाय तो वहाँसे उठकर चले जाओ; कान मूँद लो,
सुनो मत । कारण कि ऐसे आदमियोंको भली बात भी बुरी लगती है । विभीषणने
रावणको अच्छी सलाह दी, पर रावणने विभीषणको लात मारी !
अतः शान्त रहना बहुत अच्छा है । अपनेसे जो
सहा नहीं जाता, यह अपनी कमजोरी
है । यह तो ठाकुरजी लीला करते हैं आपको पक्का बनानेके लिये ! यदि सहा न जाता हो तो भगवान्से प्रार्थना करो कि ‘हे
नाथ ! हम सह नहीं सकते । कृपा करो, सहनेकी
शक्ति दो ।’
दूसरा हमारे मतका, हमारे इष्टका खण्डन करे तो यह हमारेको बुरा लगता है और हम अपने
इष्टका मण्डन करने लगते हैं । परन्तु वास्तवमें अपने इष्टका मण्डन करनेसे, प्रचार करनेसे उसका प्रचार नहीं होगा । आप चुप रह जाओ । जैसे, काकभुशुण्डिजीने पूर्वजन्ममें लोमश ऋषिके पास जाकर कहा कि मेरेको रामजीका ध्यान
बताओ, तो लोमश ऋषिने अच्छा पात्र समझकर उन्हें ज्ञानका उपदेश
दिया । लोमशजीने बार-बार ज्ञानकी बात कही, पर काकभुशुण्डिजीने उस बातको स्वीकार नहीं किया और अपनी बात कही । इससे लोमशजीको
गुस्सा आ गया और उन्होंने शाप दे दिया कि तू कौएकी तरह मेरी बातसे डरता है;
जा, तू कौआ हो जा ! काकभुशुण्डिजी
कौआ बन गये । कौआ बननेपर भी उनको न भय लगा, न दीनता आयी‒‘नहिं कछु भय न दीनता आई’ (मानस, उत्तर॰ ११२ । ८) । लोमशजीने जब ऐसी सहनशीलता देखी तो उन्होंने प्रेमपूर्वक उसे पासमें बुलाया, रामजीका मन्त्र और ध्यान बताया । इस विषयमें
काकभुशुण्डिजीने कहा है‒
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि
साप ।
मुनि दुर्लभ बर
पायउँ
देखहु भजन प्रताप ॥
(मानस, उत्तर॰ ११४ ख)
भजन क्या था ? सहनशीलता, शान्त रहना, इस भजनके
प्रतापसे मुनिने वरदान दिया कि तुम्हारे रहनेके स्थानसे योजनभर तुम्हारे पास माया नहीं
आयेगी । अतः शान्त रहनेमें बहुत बड़ी शक्ति है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
|