(गत ब्लॉगसे आगेका)
दूसरा हमारे इष्टका खण्डन क्यों करता है‒इसमें एक बात और समझनेकी है, आप ध्यान दें ! वह हमारे सामने खण्डन करता है तो हमारे अनुष्ठानमें कमजोरी
है । अगर हमारा अनुष्ठान कमजोर नहीं होता तो वह खण्डन नहीं कर सकता । हम शान्तिपूर्वक
अपने इष्टपर पक्के रहते तो उसमें खण्डन करनेकी हिम्मत नहीं होती; और यदि कोई हमारे इष्टका खण्डन कर रहा होता तो
हमारे वहाँ जाते ही वह चुप हो जाता ! जैसे, हम रामजीके भक्त हैं । यदि रामजीमें हमारा पूरा विश्वास, पूरी भक्ति होगी तो खण्डन करनेवाला हमारे सामने चुप हो जायगा, खण्डन नहीं कर सकेगा; और हम चुपचाप रहेंगे तो उसपर हमारा
असर पड़ जायगा ।
जिसके भीतर सच्चाई है, उसके लिये कई आदमी कहते हैं कि ‘हम उसके सामने झूठ नहीं बोलेंगे’
। इसी तरह हमारी भक्ति तेज होगी तो उसका दूसरोंपर असर पड़ेगा, खण्डन करनेवालेपर भी असर पड़ेगा और वह चुप हो जायगा; क्योंकि
हमारा इष्ट कमजोर नहीं है । सत्यमें बहुत बल है, असत्यमें बल
नहीं है । खण्डन करनेवालेमें बल नहीं होता । कबीर साहबने कहा है‒
निंदक तू गल जावसी, ज्यूँ पानीमें लूण ।
कबीर थारे राम रुखालो, निंदक थारे कूण ॥
मैंने सन्तोंकी बातें सुनी हैं । जो असली प्रचारक सन्त होते
हैं, वे कुछ नहीं कहते,
केवल अपनी मस्तीमें रहते हैं । उनके द्वारा जैसा ठोस प्रचार होता है,
वैसा जबानसे नहीं होता । असली असर उनका ही पड़ता है । उनके दर्शनमात्रका
दूसरोंपर असर पड़ता है । दत्तात्रेयजी महाराजके दर्शनमात्रसे एक वेश्या सब कुछ छोड़कर भगवान्के भजनमें लग गयी थी । दत्तात्रेयजीने
कुछ भी नहीं कहा । शान्त रहनेसे स्वाभाविक असर पड़ता है । शान्तिमें, अपने मतका दृढ़तासे पालन करनेमें बड़ी शक्ति है । एक सन्तने कहा है‒‘लोग समझते
हैं कि यह साधु है, ईश्वरका प्रचार करता है, पर मैं ईश्वरका लेशमात्र भी प्रचारक नहीं हूँ । ईश्वरका
प्रचार करनेमें मेरेको शर्म आती है कि क्या हमारा ईश्वर इतना कमजोर है कि उसका प्रचार
हमको करना पड़े ।’
जो सुनना चाहे, उसीको सुनाना चाहिये । जो सुनना ही नहीं चाहे, उसको क्या कहा जाय ? अपनी बात जबरदस्ती किसीपर लादेंगे तो उसके भीतर उलटी बात
पैदा होगी । एक साधु बीमार थे । सन्निपातमें वे उठें तो लोग उनको दबायें । वे फिर उठें
तो लोग फिर दबायें । उनको मैंने कहा कि इनको दबाओ मत । बल तो भीतर है नहीं,
अपने-आप शान्त हो जायेंगे । आप ज्यों दबाओगे,
त्यों ही इनका बल बढ़ेगा । ऐसे ही आप अपनी बात जबरदस्ती दूसरेपर लादोगे
तो उसके भीतर विपरीत बात पैदा होगी, जिससे उसका नुकसान तो होगा
ही आपका भी नुकसान होगा । सेठजीने कहा था‒कोई सत्संगी भाई कहता है कि हमारा अमुक काम
है, हम घर जायँगे । अगर हम उसको कहें कि अभी क्यों जाते हो ?
संसारका काम तो ऐसे ही होता रहेगा तो उसके भीतर घर जानेवाली बात ही जोरसे
बढ़ेगी । वह कहेगा कि नहीं महाराज ! हमें तो जाना ही पड़ेगा । आपको
क्या पता कि हमारा कितना जरूरी काम है ? परन्तु उसको यदि यह कहा
जाय कि अच्छा, ठीक है, आपका काम हो तो जाना
चाहिये तो वह कहेगा कि महाराज ! यहाँ सत्संगमें रहते तो अच्छा
था, पर क्या करें, जाना पड़ता है !
इस प्रकार वह जायगा तो भी सद्भाव लेकर जायगा ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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