(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे रेशमका कीडा रेशम बनाकर उसमें बँध जाता है, उसमें ही फँसकर मर
जाता है, इसी तरहसे जीवने अपना जाल बुन लिया, राग और द्वेष कर लिया । इसीसे यह फँसा हुआ है, बँधा हुआ
है । इसीने जगत्को धारण कर रखा है । जगत्की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारणरूपसे देखें तो प्रकृति है और मालिकरूपसे
देखें तो परमात्मा है । बाँधनेवाला जगत् तो जीवने ही बना रखा है । यदि यह निर्मम और
निरहंकार हो जाय तो निहाल हो जाय ! भगवान्ने बड़ी कृपा करके दो बात कह दी कि तुम ‘निर्ममो निरहङ्कारः’
हो जाओ, केवल अपनी बनायी हुई अहंता और ममताको मिटा लो तो ज्ञान
हो जायगा, पूर्णता हो जायगी । यह अहंता-ममता आपकी बनायी हुई है । पहले जन्ममें और जगह ममता थी, इस जन्ममें और जगह ममता है । इस शरीरमें रहते हुए भी आप मकान बदल देते हो,
सम्बन्ध बदल देते हो, दुकान बदल देते हो,
अपना बना लेते हो और फँस जाते हो । अतः आपने ही इसको जगत्रूपसे धारण कर रखा है । परमात्माकी दृष्टिमें यह जगत् नहीं है । महात्माकी
दृष्टिमें भी यह जगत् नहीं है । अगर अहंता-ममता छोड़ दो तो जगत्
नहीं रहेगा, दुःख मिट जायगा ।
श्रोता‒स्वयंमें कर्तापनका
भाव आ जाता है !
स्वामीजी‒हाँ, उसको आप ही स्वयंमें लाते हैं
। यह मेरा है,
यह तेरा है; यह मेरे अनुकूल है, यह मेरे प्रतिकूल है; यह हमारे पक्षका है, यह दूसरे पक्षका है; यह हमारे सम्प्रदायका है,
यह दूसरे सम्प्रदायका है‒यह अपना खुदका ही बनाया
हुआ है । इसलिये इसका त्याग करनेका दायित्व जीवपर है । अगर यह परमात्माका बनाया हुआ
होता तो इसके त्यागका दायित्व परमात्मापर होता ।
परमात्माकी बनायी सृष्टिमें उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि जो कुछ होता है, वह आपमें बिलकुल दखल नहीं
देता । वस्तुएँ आपके व्यवहारमें काम आती हैं, आपपर कोई बन्धन
नहीं करतीं, आपको परवश नहीं करतीं, परतन्त्र
नहीं करतीं । आप खुद ही उनमें अहंता-ममता करके फँस जाते हैं ।
अतः ‘ययेदं धार्यते जगत्’ का तात्पर्य है कि बन्धन
आपका ही बनाया हुआ है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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