।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
स्वाधीनताका रहस्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपको अस्पतालमें आपरेशन करवाना हो तो पहले यह लिखकर देना पड़ेगा कि अगर मैं मर जाऊँ तो कोई हर्ज नहीं है, तब वे आपरेशन करेंगे । किसीसे भी काम कराना हो तो उसको पूरा अधिकार देना चाहिये । अधिकार देना हाथकी बात है, पर अधिकार लेना हाथकी बात नहीं है । अतः भगवान् किसीका अधिकार लेते नहीं हैं । भगवान् अर्जुनके घोड़े हाँकते हैं, उनकी आज्ञाका पालन करते हैं‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्’ (गीता १ । २४) । परन्तु उनको शरणमें नहीं लेते, प्रत्युत उनको शरणमें आनेके लिये कहते हैं‒‘मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८ । ६६) । शरणमें लेना भगवान्‌का काम नहीं है ।[1]

भगवान् सबको स्वतन्त्रता देते हैं । उदार वही होता है जो सबको स्वतन्त्रता देता है, किसीपर भी अपना हक नहीं जमाता । जो दूसरोंपर हक जमाता है, वह नीचे दरजेका आदमी होता है । परन्तु आजकल लोगोंकी उलटी बुद्धि हो गयी कि अगर हम किसीपर हक जमायें तो हम बडे आदमी हो जायँगे, दूसरे हमारा कहना मानें तो हम बड़े हो जायँगे ! वास्तवमें तुम्हारा कहना माननेसे तुम गुलाम हो जाओगे, बड़े नहीं हो जाओगे । कहना माननेवाला मालिक हो जाता है और कहना मनानेवाला गुलाम हो जाता है । जो गुलामी कराना ही नहीं चाहता, कोई मेरा मातहत हो जाय‒ऐसी इच्छा ही नहीं रखता, उसका भी अगर कोई कहना माने, उसके मनके अनुकूल चले तो उसको भी गुलाम बनना पड़ेगा । भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार चलनेवाला भक्त भगवान्‌का मुकुटमणि हो जाता है । भगवान् कहते हैं‒‘भगत मेरे मुकुटमणि’, ‘अहं भक्तपराधीनः’ ( श्रीमद्भा ९ । ४ । ६३) । कोई नौकर मालिकके कहे अनुसार काम करता है तो वक्तपर मालिकको उसकी बात माननी पड़ती है । अतः जो दूसरेको मातहत बनाता है, उसको परतन्त्रता भोगनी ही पड़ेगी‒यह नियम है ।

दूसरा मेरा कहना माने, मेरे कहनेके अनुसार चले, मेरे मनकी करे; मैं जैसा चाहूँ वैसा हो जाय‒इसीका नाम ‘कामना’ है । अपने मनकी करानेका नाम ही कामना है । कामनावाले व्यक्तिको कभी शान्ति नहीं मिलती‒‘तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी’ (गीता २ । ७०) । कामनाका त्याग करते ही तत्काल शान्ति मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । परन्तु आज उलटी बात हो रही है, शान्ति भी चाहते हैं और मनमें यह कामना भी रखते हैं कि स्त्री मेरा कहना करे, पुत्र मेरा कहना करे, माँ-बाप मेरा कहना करें, गुरुजी भी मेरा कहना करें । इतना ही नहीं, भगवान् भी मेरा कहना करें ! हम भक्त हैं; अतः भगवान्‌को हमारा कहना करना चाहिये । नारदजीने भी यही कहा‒‘करहु सो बेगि दास मैं तोरा’ (मानस, बाल १३२ । ४) । मैं आपका दास हूँ, जल्दी करो मेरा काम ! सभी चाहते हैं कि दूसरा मेरा कहना करे, तो फिर कहना करेगा कौन ? यह कहे कि वह मेरा कहना करे, वह कहे कि यह मेरा कहना करे, तो दोनों ही ठग हैं ! दो ठगोंमें ठगाई नहीं होती । श्रेष्ठ, शूरवीर पुरुष वही है, जो दूसरेका कहना करे । मैं सबका कहना करूँ, ये जैसा कहें, वैसे करूँ‒ये श्रेष्ठ पुरुषके लक्षण हैं । भगवान् सबसे श्रेष्ठ हैं तो वे कैसे कहेंगे कि तू यह कर, ऐसे कर ?


[1] अर्जुन भगवान्‌को आज्ञा देते हैं कि दोनों सेनाओंके बीच मेरे रथकी खड़ा करो‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत’ (गीता १ । २१ ), तो भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथकी खड़ा कर देते हैं ।
 
  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे