(गत
ब्लॉगसे आगेका)
हमने एक कहानी सुनी थी । एक परिवारमें ब्राह्मण,
ब्राह्मणी, बेटा और बहू‒ये चार प्राणी थे । लड़का जवान था पर अचानक मर गया
। लड़का अग्निमें पड़ा था । लोग इकट्ठे हो गये । पर वह ब्राह्मण देवता उठकर चल दिये ।
लोगोंने पूछा‒‘कहाँ जाते हो ?’ उन्होंने कहा- ‘मैं साधु होऊँगा और भजन करूँगा ।’
लोगोंने कहा‒‘अरे ! तुम्हें दया नहीं आती इनपर । जवान लड़का मर
गया है । घरमें दो स्त्रियाँ हैं बेचारी । उनका पालन-पोषण कौन करेगा’
। उन्होंने कहा‒‘पीछे इनका पालन-पोषण कौन करेगा‒यह चिन्ता इसने (जवान लड़केने)
तो की ही नहीं और सबको छोड़कर चला गया । मैं बूढ़ा क्या चिन्ता करूँ ?
लोगोंने फिर कहा‒‘महाराज ! इसको उठाओ तो सही !’
वे बोले‒‘इस घरमें और श्मशानमें क्या फर्क है ?
मेरे तो श्मशान ही घर है और घर ही श्मशान है । आप लोग इसको भले
ही यहाँ रखो, वहाँ रखो, चाहे कहीं रखो । मैं तो जाता हूँ ।’
ऐसा कहकर वे चट चल दिये ।
बहुत पुरानी बात है । विक्रम संवत् उन्नीस-सौ पचहत्तरकी होगी,
ठीक याद नहीं । उस समय ‘वेदान्त-केसरी’ पत्र निकलता था । उसमें एक बात आयी थी कि बम्बईमें समुद्रके
किनारे घूमते-घूमते एक आदमी किसी दीवारपर बैठ गया । इतनेमें एक जवान लड़का धोती-लोटा
लेकर स्नानके लिये समुद्रके किनारे आया । उसने धोती-लोटा तो किनारेपर रख दिया और स्नानके
लिये समुद्रमें उतर गया तो उतर ही गया । वह पीछे आया ही नहीं,
डूब गया । लोगोंने ढूँढ़ा तो उसकी लाश मिली । अब जो आदमी दीवारपर
बैठा था, उसने यह सब देख लिया । बस वह वहाँसे चल दिया,
न घरवालोंसे कहा और न किसीसे कुछ कहा । उसने यही विचार कर लिया कि मरते इतनी देरी लगती है तो इस शरीरका
क्या भरोसा ? मैं तो भजन करूँगा । उस तत्त्वकी प्राप्त करना है मेरेको ।
अभी पाँच-सात वर्ष पहले अखबारमें एक बात निकली थी । नागपुरमें
चार युवक आपसमें बातचीत कर रहे थे कि ‘कैसे साधु हो जायँ ?’
तो उनमेंसे एकने कहा‒‘कैसे क्या? ऐसे किया और हुआ ।’ तो उन तीनोंने कहा‒‘तुम बन जाओ साधु ।’ उसने कहा‒‘हाँ हम भी साधु बन जायेंगे और भजन करेंगे ।’
उन तीनोंने फिर कहा‒‘गोपीचन्द जैसे अपनी स्त्रीको ‘माँ’ कहकर भिक्षा ले आये थे,
ऐसे ही तुम भी अपनी स्त्रीको ‘माँ’ कहकर भिक्षा लाओगे ?’
उसने कहा‒‘हाँ, हम भी भिक्षा ले आयेंगे ।’
उसने वैसा ही किया और घर जाकर अपनी स्त्रीसे कहा‒‘माई ! भिक्षा दो ।’ यह कैसे होता है ? ऐसे
होता है । विचार हो गया, तो हो ही गया । अब इधर-उधर हो ही नहीं सकता । मरनेवाला
क्या मुहूर्त पूछकर मरता है ? ऐसे ही एक विचार कर ले कि दुनिया भला कहे या बुरा, सुख
पाये या दुःख, धन मिले या चला जाय; चाहे
कुछ हो जाय, हमें तो उस तत्त्वको प्राप्त करना ही है । इसीको
अनन्यता कहते है ।
का माँगूं कुछ थिर न रहाई, देखत
नैन चल्या जग जाई ॥
इक लख पूत सवा लख नाती, ता रावन
धरि न दिया न बाती ॥
लंका सी कोट समंद सी रवाई, ता रावनि
की खबरि न पाई ॥
आवत संगि न जात संगाती, कहा
भयौ दरि बाँधे हाथी ॥
कहै कबीर अंतकी बारी, हाथ
झाड़ि जैसे चले जुवारी ॥
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘साधकोंके
प्रति’पुस्तकसे
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