Feb
02
(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्को विलक्षण आनन्द देनेवाला जो प्रेम है,
वह गुणोंमें नहीं है,
प्रत्युत निर्गुणमें है । कारण कि गुणातीत भगवान् भी जिस प्रेमके
लोभी हैं, वह प्रेम गुणमय कैसे हो सकता है
? जैसे भगवान्का शरीर दिव्य
है, गुणमय नहीं है, ऐसे ही उन गोपियोंका शरीर भी दिव्य हो गया,
गुणमय नहीं रहा । सगुण भगवान् भी सत्त्व-रज-तम-गुणोंसे युक्त
नहीं हैं, प्रत्युत ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुणोंसे युक्त हैं । इसलिये सगुण भगवान्की
भक्तिको भी निर्गुण (सत्त्वादि गुणोंसे रहित) बताया गया है;
जैसे‒‘मन्निकेतं तु निर्गुणम्’ (श्रीमद्भा॰ ११ । २५ । २५) ‘मत्सेवायां तु निगुणा’ (श्रीमद्भा॰ ११ । २५ । २७) आदि । भगवान्की भक्ति करनेसे मनुष्य
गुणातीत हो जाता है ।[*] तात्पर्य यह है कि
भगवान्से सम्बन्ध होनेपर सत्त्व, रज और तमोगुण रहते ही नहीं । अतः रासलीलामें
जो शरीर थे, वे हमारे शरीर-जैसे गुणोंवाले नहीं थे, प्रत्युत
भगवान्के शरीर-जैसे तीनों गुणोंसे रहित अर्थात् दिव्यातिदिव्य थे । उस रासलीलामें जितनी भी गोपियाँ गयी थीं,
वे सब-की-सब भगवान्की इच्छासे दिव्य भावमय शरीर धारण करके ही
गयी थीं । इसीलिये उन गोपियोंके गुणमय शरीरोंको उनके पतियोंने अपने पास (घरमें ही)
सोते हुए देखा‒‘मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान्
दारान् व्रजौकसः’ (श्रीमद्भा॰ १० । ३३ । ३८) ।
तात्पर्य यह निकला कि जिन गोपियोंको विरहजन्य तीव्र ताप नहीं
हुआ, उनके गुणमय शरीर तो पतिके पास रहे, पर (जीवन्मुक्तकी तरह) उन शरीरोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहा,
केवल शरीरका भान रहा । परन्तु जिन गोपियोंको विरहजन्य तीव्र
ताप हुआ, उनके गुणमय शरीर और उनका भान ही नहीं रहा,
फिर उन शरीरोंके साथ सम्बन्ध होनेका प्रश्र ही पैदा नहीं होता;
क्योंकि उनका अनादिकालका गुणसंग ही नहीं रहा,
जो कि जन्म-मरणका मूल कारण है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
(गीता १४ । २६)
‘जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा
सेवन करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका
पात्र हो जाता है ।’
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