Feb
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(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम आता है‒‘चोरजारशिखामणि ।’ इसका अर्थ है कि भगवान्के समान चोर और जार दूसरा कोई है ही
नहीं, हो सकता ही नहीं । दूसरे चोर और जार
तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं,
पर भगवान् केवल दूसरेके सुखके लिये चोर और जारकी
लीला करते हैं । उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, विलक्षण, अलौकिक
हैं‒‘जन्म कर्म च मे
दिव्यम्’ (गीता ४ । ९) ।[1]
संसारी चोर तो केवल वस्तुओंकी ही चोरी करते हैं, पर
भगवान् वस्तुओंके साथ-साथ उन वस्तुओंके राग, आसक्ति, प्रियता
आदिको भी चुरा लेते हैं । भगवान्ने गोपियोंके मक्खनके साथ-साथ उनके रागरूप बन्धनको भी खा लिया था । वे
जार बनते हैं तो सुखके भोक्ताके साथ-साथ सुखासक्ति,
सुखबुद्धिका भी हरण कर लेते हैं,
जिससे सम्बन्धजन्य आकर्षण (काम) न रहकर केवल भगवान्का आकर्षण
(विशुद्ध प्रेम) रह जाता है, अन्यकी सत्ता न रहकर केवल भगवान्की सत्ता रह जाती है । तात्पर्य
है कि भगवान् अपने भक्तोंमें किसीको चोर और जार रहने ही नहीं देते,
उनके चोर-जारपनेको ही हर लेते हैं । ‘कनक’
(धन) और ‘कामिनी’ (स्त्री)-की आसक्तिसे ही मनुष्य ‘चोर’
और ‘जार’ होता है । अतः कनक-कामिनीकी आसक्तिका
सर्वथा अभाव करनेवाले होनेसे भगवान् चोर और जारके भी शिखामणि हैं ।
यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियोंका गुणमय शरीर नहीं रहा,
उनकी भगवान्के साथ रासलीला कैसे हुई
? इसका समाधान है कि वास्तवमें रासलीला गुणोंसे अतीत (निर्गुण) होनेपर ही होती है ।
गुणोंके रहते हुए भगवान्के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी
अपेक्षा गुणोंसे रहित होकर भगवान्के साथ होनेवाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है । दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य
आदि भाव भी वास्तवमें गुणातीत (मुक्त) होनेपर ही होते हैं ।[2] एक श्लोक आता है‒
द्वैत मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
(बोधसार, भक्ति॰ ४२)
‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है
।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
[1] यद्यपि देवता भी दिव्य कहलाते हैं,
तथापि उनकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे कही जाती है । परन्तु
भगवान्की दिव्यता निरपेक्ष होनेसे देवताओंसे भी विलक्षण है । इसलिये देवता भी भगवान्के
दिव्यातिदिव्य रूपके दर्शनकी नित्य इच्छा रखते हैं‒‘देवा अप्यस्य
रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’
(गीता ११ । ५२) ।
[2] भक्तियोगकी यह विलक्षणता है कि उसमें साधक पहलेसे ही (गुणोंके
रहते हुए भी) भगवान्में दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भाव कर सकता है ।
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