(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम कोई कर्म करें, तभी शरीर काम आता है । कोई भी कर्म न करें तो शरीरका क्या उपयोग
है ? शरीरसे परिवारकी, समाजकी अथवा संसारकी सेवा कर सकते हैं । अपने लिये शरीर है ही नहीं । स्थूलशरीरसे कोई काम न करें
तो स्थूलशरीर निकम्मा है । कोई चिन्तन न करें तो सूक्ष्मशरीर निकम्मा है । स्थिरतामें
अथवा समाधिमें न रहें तो कारणशरीर निकम्मा है[*] । तात्पर्य है कि ये सब क्रियाएँ स्वरूपमें नहीं होतीं,
पर मनुष्य इनको अपनेमें मान लेता है । यह मान्यता ही बन्धन है
। अपनेको कर्ता माननेसे यह बँध जाता है‒‘अहंकारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) और अपनेको कर्ता न माननेसे यह मुक्त हो जाता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५ । ८)
। जैसे मनुष्य एक लड़कीके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसका पूरे ससुराल (सास-ससुर,
साला-साली आदि)-के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है । ऐसे ही एक शरीरके
साथ सम्बन्ध जोड़नेसे शरीरसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंसे सम्बन्ध जुड़ जाता है अर्थात्
शरीरसे होनेवाली क्रियाएँ अपनी क्रियाएँ हो जाती हैं । शरीरसे
स्वाभाविक अलगावका अनुभव हो जाय तो फिर जन्म-मरण नहीं होता ।
शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए मनुष्य कर्म करनेसे भी बँधता है
और कर्म न करनेसे भी बँधता है । परन्तु शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह कर्म करते
हुए भी वास्तवमें कुछ नहीं करता‒‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव
किञ्चित्करोति सः’ (गीता
४ । २०) जैसे,
दहीके साथ घी भी रहता है,
पर दहीमेंसे घी निकाल
दिया जाय तो फिर वह उसमें (छाछमें) नहीं मिलता,
अलग हो जाता है । ऐसे ही शरीरसे अलग होनेके बाद फिर स्वयं उससे
नहीं मिलता । वास्तवमें वह मिला हुआ होनेपर भी अलग ही है,
पर मिला हुआ मान लेता है । तात्पर्य
है कि जड़ चेतनतक नहीं पहुँचता,
पर चेतन जड़तक पहुँचता है और उसके साथ सम्बन्ध मान
लेता है तथा जड़में होनेवाली क्रियाओंको,
विकारोंको अपनेमें मान लेता है । अगर सम्बन्ध न माने
तो बन्धन है ही नहीं और मुक्ति स्वाभाविक है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
[*] जब साधक स्थिरतासे भी तटस्थ हो जाता है और स्थिरताका भी साक्षी
हो बता है, तब वह कारणशरीरसे भी अलग हो जाता है,
जो उसका वास्तविक स्वरूप है ।
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