।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७३, सोमवार
‘है’ (परमात्म-तत्त्व) की ओर दृष्टि रखें
 

 
(गत ब्लॉगसे आगेका)


है सो सुन्दर है सदा नहीं सो सुन्दर नाय ।
नहीं सो परगट देखिये  है सो दीखे नांय ॥

अब दीखे कैसे ? वह तो देखनेवाला है, उसके प्रकाशमें सब है । वह स्थिर है ज्यों-का-त्यों है । ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ॥’ ‘तस्मादेवं विदित्वैनम्’इसको ठीक तरहसे जान ले तो शोक नहीं हो सकता, चिन्ता नहीं हो सकती । चाहे प्रलय हो जाय, चाहे घरवाले एक साथ ही सब मर जाये । क्या फर्क पड़े ? सब धन चला जाय तो क्या फर्क पड़े ? और धन आ जाय बहुत-सा तो क्या फर्क पड़े ? क्या समझे, बोलो महाराज ! अब इसमें कोई जोर आवेगा क्या ? यह जो कहा जाता है कि इस तत्त्वकी प्राप्तिमें कोई परिश्रम नहीं है, इसके समान सुगम कोई है ही नहीं, यह सच्ची है कि झूठी ? बताओ ! इससे सुगम काम है कोई ? आप बताओ ! आप कठिन कहते थे । हृदयसे बताओ कि इसमें कोई कठिनता है क्या ?

श्रोता‒लगती तो नहीं है ।

पू श्रीस्वामीजी‒जब लगती नहीं है तो फिर क्यों मेहनत पकड़ो ? लगती ही नहीं तो जबर्दस्ती क्यों पकड़ो ?

श्रोता‒लगनकी कमी है महाराजजी !

पू श्रीस्वामीजी‒लगनकी कमी कैसे हुई ? अब क्या कमी रही लगनकी ? लगनकी जरूरत नहीं, यह तो है ही यों ही ।

श्रोता‒स्वामीजी ! ये माननेपर भी अनुकूलता-प्रतिकूलतामें एक शान्ति-अशान्ति होती है, यह तो महसूस होती रहती है ।

पू श्रीस्वामीजी‒अशान्ति और शान्ति दोनों दीखती है कि नहीं ? यह बताओ ! उस दीखनेमें शान्ति और अशान्ति कहाँ है ? शान्तिका भी ज्ञान होता है और अशान्तिका भी ज्ञान होता है । शान्ति और अशान्ति दो तरहकी है, पर ज्ञान भी दो तरहका है क्या ? भेद है तो उस ज्ञानमें, जो प्रकाशित होता है उसमें भेद है, पर प्रकाशमें क्या भेद है ? बोलो !

श्रोता‒यह समझमें नहीं आती ।

पू श्रीस्वामीजी‒समझमें आना और नहीं आना‒यह दीखता है कि नहीं ? यह बताओ आप ! ये दोनों एक ही जातिके हैं । जिस प्रकाशमें समझमें आना दीखता है और नहीं आना दीखता है वह तो ज्यों-का-त्यों ही हुआ न, क्यों भाई ? जो समझमें आयी, वह भी दीख रहा है और नहीं आयी, वह भी दीख रहा है । देखनेवाला तो ज्यों-का-त्यों ही है । समझने-न-समझनेसे क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि समझने-न-समझनेसे उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।

‘पायो री मैंने रामरतन धन पायो ।’

 नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे