।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
साधन विषयक दो दृष्टियाँ
 
 


साधकको चाहिये कि वह अपनी अवस्थाकी तरफ देखे ही नहीं, केवल साधनमें तत्परतासे लगा रहे । एक तो यह दृष्टि है और दूसरी दृष्टि यह है कि हमारा कितना सुधार हुआ और कितना बाकी रहा ? ऐसा विचार करके चलता रहे । इन दोनोंमें विरोध मालूम देता है, विरोध है भी । जब अपनेको सन्देह हो, तब कितना सुधार हुआ और कितना नहीं हुआ, यह देखना आवश्यक है । जहाँ सुधार नहीं हुआ है, उधर ही दृष्टि डालनी चाहिये । इतना हो गया, ऐसा करके सन्तोष नहीं करना चाहिये और जो बाकी रह गया है, उसके लिये घबराना नहीं चाहिये । उत्साहपूर्वक काम करना चाहिये । अपनेको तत्परतासे कर्तव्यकर्म-साधनमें लगाये रखे । जैसे गीताने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं । इस वास्ते कर्मके फलका हेतु भी मत बन और अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो । यह बहुत श्रेष्ठ और ऊँची बात है ।
 
मेरा साधन इतना ही बना, ऐसी ऊँची स्थिति मेरी नहीं हुई है । इस प्रकार देखनेसे एक बड़ी भारी गलती होती है । वह यह होती है कि अपने शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरणपर ममता हो जाती है । अहंता और ममता, जिनका त्याग करना है, उनका त्याग न होकर अहंता-ममता दृढ़ हो जाती है । नहीं तो अपने अन्तःकरण और शरीर, इन्द्रियोंमें ही क्यों खोज करता है ? खोज करनी है तो सब जगह करे । सब जगह नहीं करे तो एक जगह क्यों करता है ? एक जगह खोज करनेसे इनकी ममता बनी रहती है और ममता जबतक बनी रहती है, तबतक साधन बढ़िया नहीं होता । ममता और अहंता ही बाधक हैं । इस वास्ते साधन कितना हुआ और कितना नहीं हुआ ? यह खयाल ही नहीं करे । अपने तो एक परमात्म-तत्त्वमें ही लगा रहे । अपनी स्थिति देखते रहनेसे अहंता, ममता, परिच्छिन्नता, एकदेशीयपना‒यह मिटेगा नहीं । जबतक यह नहीं मिटेगा, तबतक वास्तविक स्थिति होगी नहीं । इस वास्ते अपने तो बस देखे ही नहीं कि कितना बना, कितना नहीं बना ! अपने द्वारा कोई गलती तो नहीं हो रही है न ? शास्त्रसे, मर्यादासे विरुद्ध तो नहीं कर रहा हूँ । इतना खयाल रखते हुए ठीक तरहसे करता रहे ।
 
मनुष्य प्रायः करके अपनी वृत्तियोंकी तरफ देखता है कि हमारी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं । अभी तो फुरणा नहीं मिटी, हमारे तो राग-द्वेष नहीं मिटे, मनकी चंचलता नहीं मिटी । ऐसा देखनेसे एक बड़ी गलती होती है कि वह अन्तःकरणकी स्थितिको अपनी स्थिति मानता है । वास्तवमें अन्तःकरणकी स्थिति अपनी स्थिति नहीं है । अपनेको तो अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे