(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपना संसार नहीं, अपने तो भगवान् हैं । भगवान्की प्राप्तिको असम्भव या
कठिन मानना गलती है । इसमें बाधा है धन तथा पदाथकि संग्रहकी तथा सुख-भोगकी चाहना‒यह
माया है । इस मायामें यह तोते और बन्दरकी तरह बँधा हुआ है‒
सो माया बस भयउ गोसाईं ।
बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥
एक तोता पकड़नेवाला जंगलमें तोता पकड़ता
था । उसने एक पानीकी गहरी कुण्डी बनायी थी । उसपर आड़ी लकड़ी रखी हुई थी । उसपर ज्यों
ही तोता बैठे कि उलटा हो जाय । अब नीचे देखे तो पानी और चारों ओर दीवाल । उसे लगता
है कि फँस गया । उस लकड़ीको वह तोता छोड़ता नहीं । इतनेमें आकर तोता पकड़नेवाला उसे पकड़
लेता है । यह दृश्य देखकर एक सन्तको दया आ गयी तो उन्होंने एक तोता लिया और उसे पढ़ाया‒देखो
तोता, जहाँ जलकी ऐसी कुण्डी हो, वहाँ नहीं जाना । तो तोतेने भी ऐसा ही याद करके कह दिया
। फिर सन्तने कहा कि बीच डंडेपर मत बैठना । तोतेने यह भी याद कर लिया । फिर सन्तने
कहा कि बैठ जाओ तो उड़ जाना । तोतेने भी वैसा कह दिया । लटक जाओ तो भी उड़ जाना, बन्धन नहीं होगा । तोतेने वह भी वैसा ही कह दिया । सन्तने
ऐसा सिखाकर तोतेको छोड़ दिया । उस तोतेने और कई दूसरे तोतोंको भी यह पढ़ा दिया । सन्तने
देखा कि अब तोते नहीं फँसेंगे । फिर एक दिन तोता पकड़नेवालेने जलकी कुण्डी रखी तो तोता
वहाँ डंडापर बैठ गया । ‘जलकी कुण्डीपर नहीं बैठना है’ ऐसा मुँहसे सारी बात कहते-कहते तोता पकड़ लिया गया ।
इसी प्रकार हम लोग भी सन्तकी
बतायी हुई बात सुनकर मुखसे कहते रहते हैं; परन्तु आचरण नहीं करते ।
ऐसे ही बन्दरको पकड़नेवाले छोटे मुँहके
घड़ेमें चने रख देते हैं । बन्दर आता है और दोनों हाथ घड़ेमें डालकर चनोंसे मुट्ठी भर
लेता है । बँधी हुई मुट्ठी वह घड़ेके छोटे मुँहसे बाहर नहीं निकाल सकता और चने छोड़ना
भी नहीं चाहता । इस प्रकार बन्दर और तोता दोनों खाने-पीनेमें बँधते हैं । ऐसे ही हम
लोगोंकी, पढ़े-लिखोंकी दशा है कि हम भी यह बोलते रहते हैं कि‒
ईस्वर अंस जीव अबिनासी
। चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो माया बस भयउ गोसाईं
। बँध्यो कीर मरकट की
नाई ॥
बातें बना लेंगे । बातें
सुनाना सीख लेंगे । परन्तु स्वयं आचरण नहीं करेंगे ।
परोपदेशबेलायां सर्वे शिष्टा
भवन्ति हि ।
दूसरोंको उपदेश देना होता है तो सब
विद्वान् बन जाते हैं ।
विस्मरन्ति तत्सर्वं स्वकायें
समुपस्थिते ॥
अपना काम सामने आता है तो याद नहीं
रहती, भूल जाते हैं ।
जब कोई दूसरा मर जाता है तो वह धीरज
बँधाते हैं कि संसार अनित्य है । यहाँ सब नाशवान् हैं । प्रभुकी ऐसी ही मर्जी थी ।
अतः रोओ मत । परन्तु अपना कोई मर जाता है तो रोते हैं ।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
अतः हमारे भगवान् हैं और
हम भगवान्के हैं,
यह उपदेश हमें देना नहीं
है । अपितु लेना है । भगवान्से अपनेपनमें हताश होनेकी किंचिन्मात्र, कहीं भी आवश्यकता नहीं है । सांसारिक
आशाएँ किसीकी भी आज दिनतक पूरी हुई नहीं और परमात्मप्राप्तिकी आशा आज दिनतक किसीकी
बाकी रही नहीं । परन्तु संसारसे तो रखी आशा और भगवान्से रहे निराश, यह गलती की । अतः आज अबहीसे स्वीकार कर लें कि भगवान्
हमारे हैं । उनपर हमारा पूरा अधिकार है । और संसार हमारा नहीं है । हमारा संसारपर अधिकार
नहीं है । यह बहुत बढ़िया सार बात है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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