(गत ब्लॉगसे आगेका)
अनुकूलता-प्रतिकूलता तो सबके आयेगी
। जिसके घोड़े हाँकते हैं, उस अर्जुनको भगवान् कहते हैं कि‒भैया
! ये तो ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’ हैं । इनको तुम सहन कर लो‒‘तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २ । १४) । इसको मैं
मिटा दूँगा,
ऐसा नहीं कहा । सहन करनेके
लिये कहा ।
राग-द्वेषके वशीभूत न होवे । ठीक और
बेठीक मानकर सुखी-दुःखी न होवे । इनकी चिन्ता न करे । फिर सब ठीक हो जायगा । कितनी
ही खटपट आवे, आप सुखी-दुःखी मत होओ । यह तो आने-जानेवालीहै
। इसका मन्त्र है‒‘आगमापायिनोऽनित्याः’ यह मन-ही-मन जपो । इस भावसे जपो कि यह तो आने-जानेवाली
है, अनित्य है । अच्छी या मन्दी कैसी क्यों न हो, खटपट आते ही यह सूत्र (मन्त्र) लगा दो कि ‘आगमापायिनोऽनित्याः’ ये आने-जानेवाली और अनित्य हैं । अनुकूल-से-अनुकूल आये, तो आने-जानेवाली है । प्रतिकूल-से-प्रतिकूल आये, तो आने- जानेवाली है । बिलकुल सच्ची बात है । न अनुकूलता
ठहरती है, न प्रतिकूलता ठहरती है । बस, इसको इतनी जान लो कि यह ठहरनेवाली नहीं है । इसमें कोई
नया काम नहीं करना है । अब इनको लेकर क्या राजी हों और क्या नाराज हों ?
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य
चाप्रियम् ।
(गीता ५ । २०)
प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें सुखी
और दुःखी क्या हों ? बढ़िया-से-बढ़िया परिस्थिति आये, तो वह भी ठहरेगी नहीं, पर आप ठहरते हो ! क्योंकि आपके सामने अनुकूलता और प्रतिकूलता‒दोनों आती हैं और जाती हैं और
आप रहते हो । आप वही हो, बस अपनी तरफ ही दृष्टि रखो । ये जो आने-जानेवाली है, इनके साथ मिलो मत‒यही मुक्ति है । इनके
साथ मिल जाते हों‒यही बन्धन है । आने-जानेवाली खटपटके साथ, परिस्थितिके साथ मिल जाना है‒बन्धन, और न मिलना है‒मुक्ति । कितनी सरल, सीधी-सादी बात है !
आप कहते हो कि न चाहते हुए भी हम मिल
जाते हैं, अनूकूलता-प्रतिकूलताके साथ एकदम मिलना हो जाता है, तो इसका भी उपाय है । इनसे मिल
जानेपर भी यह तो ज्ञान है ही कि इनके साथ हम मिल जाते हैं, पर हम अलग हैं और ये अलग हैं । यह बात
सच्ची है कि नहीं ? खटपट पैदा होती है, मिटती है; आती है, जाती है और आप रहते हो । तो खटपट और आप अलग-अलग दो हुए
कि एक ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
|