(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒क्या
भूलवश ऐसा अहंकार हो सकता है कि हमने प्रभुको सर्वस्व अर्पण कर दिया है ?
स्वामीजी‒नहीं हो सकता ।
यदि अहंकार होता है तो वास्तवमें पूर्ण समर्पण हुआ ही नहीं । वस्तुओंका भूलसे अपना
माना था, वह भूल मिट गयी (अर्पण कर दिया) तो अभिमान कैसा ?
प्रश्न‒शास्त्रमें
विधि-निषेधरूप धर्म बताया है । पूर्ण समर्पण करनेवालेको धर्म त्यागना पड़ेगा और धर्म
त्यागते हैं तो शास्त्र छूट जायगा ?
स्वामीजी‒छूटेगा ही नहीं,
प्रत्युत पूर्ण समर्पण करनेके बाद उससे नया शास्त्र बनेगा । शास्त्र छोड़नमें दोष है,
छूटनेमें कोइ दोष नहीं । शास्त्र (शासन) साधकके लिये है,
महापुरुषके लिये नहीं‒‘आत्मन्येव च
सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते’ (गीता
३ । १७) । ऐसे महापुरुषके
लिये शास्त्र निवृत्त हो जात हैं ।
प्रश्न‒जैसे
किसीको मकान बेचनेपर उस घरमें रहनेवाले साँप, बिच्छू
छिपकली आदि भी उसके पास जायँगे, ऐसे
ही सर्वस्व अर्पण करनेवालेके गुण-दोष भी अर्पित हो जायँगे ?
स्वामीजी‒अग्निमें जो भी
डाला जाय, सब अग्निरूप हो जाता है । तभी गीतामें आया है‒‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः’ (९ ।
२८) । भगवान्ने भी कहा है‒‘सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ (गीता
१८ । ६६) । पापोंसे मुक्त
कर दूँगा, न कि पुण्योंसे ?
प्रश्न‒बिना
अहंकारके निषिद्ध कर्म हो जाय और अहंकारसे शुभ कर्म हो जाय तो दोनोंमें क्या ठीक है
?
स्वामीजी‒अहंकार-रहित होनपर
कोई कर्म लागू नहीं होता‒‘यस्य नाहङ्कृतो भावो’ ( गीता
१८ । १७) । अहंकारके रहते
हुए शुभ कर्म भी बन्धनकारक होता है ।
प्रश्न‒करनेमें
पूरी सावधानी रखनेसे अहंकार नहीं आयेगा क्या ?
स्वामीजी‒अहंकार गया ही
कहाँ, जो आ जायगा ? करनेमें सावधान रहनसे अहंकार मिटेगा । कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध
होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है‒तीनोंका
परिणाम एक ही होगा कि अहंकार नहीं रहेगा ।
अहंकार आये तो ‘मैं सावधानी रखता हूँ’‒इसका भी आ जायगा ! ‘मैं
त्यागी हूँ’‒इसका भी अहंकार आ जायगा !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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