May
28
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्कार्य (शुभ कार्य) वही है, जिसमें अपनी सुख-सुविधाकी, लोक-परलोक सुधरनेकी कुछ भी इच्छा न हो । जिसमें
अपनी सुख-सुविधा, आराम आदिकी इच्छा होती है, वह कर्म असत्, अशुभ हो जाता है और बन्धनका कारण बन जाता है । जैसे, सेवा-समितिवाले मेलेमें केवल दूसरोंकी सुख-सुविधाके लिये
ही जाते हैं तो वे किसीसे बँधते नहीं । परन्तु उनमें भी अगर मान-बड़ाई आदिकी इच्छा होगी
तो वे बँध जायँगे ।
जैसे, कोई सज्जन पथिक रात्रिमें किसीके घरपर ठहरता है तो वह घरवालोंको
बिना कोई बाधा दिये ही भोजन, शयन इत्यादि करके अपना निर्वाह करता है । परन्तु रात्रिमें चोर-डाकू
आ जायँ, घरमें आग लग जाय तो रक्षा करनेके लिये वह सबसे पहले तैयार होता
है, दौड़-धूप करता है । कारण कि वह समझता है कि मैंने इनके घरका अन्न-जल लिया है; अतः
किसी भी प्रकारसे इनकी सेवा बन जाय तो मैं इनके ऋणसे मुक्त हो जाऊँ । ऐसे ही परिवारमें
रहते हुए प्रत्येक सदस्य यही सोचे कि इस परिवारमें मेरा जन्म हुआ है,
पालन-पोषण हुआ है, मैं शिक्षित हुआ हूँ;
अतः मेरे तन-मन-धनसे इनकी सेवा बन जाय,
जिससे मैं इनका ऋणी न रहूँ । ऐसे भावसे घर-परिवारमें रहे तो
पथिककी तरह घरमें ममता नहीं रहेगी । जैसे पथिक सुबह होते ही वहाँसे चल देता है,
फिर उसको वह घर याद नहीं आता;
क्योंकि उसकी उस घरमें ममता नहीं होती । ऐसे ही घरमें पथिककी
तरह ईमानदारीसे रहते हुए तत्परता एवं उत्साहपूर्वक सबकी सेवा करनेसे ममता टूट जाती
है‒‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’ (गीता
२ । ५७), ‘असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु’ (गीता
१३ । ९) । तात्पर्य है
कि परिवारमें रहते हुए सबकी सेवा करें, पर बदलेमें सेवाकी इच्छा न रखें । शरीरसे परिश्रम करके सेवा
करनेसे ‘अहंता’ नहीं रहेगी और उदारतापूर्वक वस्तुएँ सेवामें खर्च करनेसे ‘ममता’
नहीं रहेगी ।
घरमें रहते हुए सेवा न लें‒इसमें कठिनता जरूर है;
क्योंकि सेवा लेनेकी आदत पड़ी हुई है । अतः कभी सेवा लेनी भी
पड़े तो केवल दूसरेकी प्रसन्नताके लिये ही सेवा लें । दूसरेकी प्रसन्नताके लिये सेवा
लेना भी वास्तवमें देना ही है! जैसे, पत्नी भोजन बनाये तो उसकी प्रसन्नताके लिये भोजन करे,
अपने आराम, बलवृद्धि आदिके लिये नहीं । वास्तवमें
देखा जाय तो संसार केवल ममता रखनेसे राजी नहीं होता, प्रत्युत सेवा करनेसे अथवा वस्तु देनेसे राजी होता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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