(गत ब्लॉगसे आगेका)
बिछुड़नेवाली वस्तुका त्याग कर दें तो स्वतः कल्याण
होता है‒यह भगवान्की बड़ी विलक्षण कृपा है ! भगवान् मिले हुए और बिछुड़नेवाले नहीं हैं,
प्रत्युत सदासे ही मिले हुए हैं,
सदा मिले हुए ही रहते हैं,
कभी बिछुड़ते नहीं । भगवान्के सिवाय जो कुछ है,
वह सब-का-सब बिछुड़नेवाला है‒
आब्रह्मभुवनाल्लोका पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
(गीता
८ । १६)
‘हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्तीवाले
हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुनः लौटकर संसारमें आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता ।’
मनुष्यशरीर केवल त्याग करनेके लिये ही मिला है ।
त्याग करनेसे अपने घरका कुछ भी खर्च नहीं होगा और कल्याण मुफ्तमें हो जायगा ! अतः मिली
हुई वस्तुका हृदयसे त्याग कर दें कि यह हमारी नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है तो
कल्याण हो जायगा‒यह पक्का सिद्धान्त है । त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता
१२ । १२);
क्योंकि शरीर, योग्यता, बल, बुद्धि आदि जो कुछ मिला है,
त्याग करनेके लिये ही मिला है । त्याग नहीं करेंगे तो भी वे
बिछुडेंगे ही । साथमें रहनेवाली कोई भी चीज नहीं है ।
दान-पुण्य करते हैं तो लोग समझते हैं कि रुपयोंसे कल्याण होता
है । वास्तवमें रुपयोंसे कल्याण नहीं होता,
प्रत्युत रुपयोंमें जो मोह है,
उसके त्यागसे कल्याण होता है । अगर बाहरसे रुपयोंका त्याग करनेसे
ही कल्याण होता तो धनी आदमी कल्याण कर लेते और गरीबोंका कल्याण होता ही नहीं ।
एक मार्मिक बात है । संसार सत् है या असत्, नित्य है या अनित्य‒इस
विषयमें बड़ा मतभेद है । परन्तु संसारका सम्बन्ध असत् है, अनित्य
है‒इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है । जड़-चेतनका सम्बन्ध असत् है; क्योंकि जड़-चेतनका सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । अतः संसारसे माने हुए सम्बन्धका ही त्याग करना है । असत् अपना नहीं
है‒यही असत्का त्याग है । असत्के त्यागसे सत्-तत्त्व परमात्माकी प्राप्ति
स्वतः हो जायगी । शरीर बिछुड़ जायगा तो मौत हो जायगी,
पर उसके सम्बन्धका त्याग कर दें तो मौज हो जायगी ! छूटनेवालेको हम अपनी मरजीसे छोड़ दें तो आनन्द हो जायगा, पर
वह जबर्दस्ती छूटेगा तो रोना पड़ेगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
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