।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, शनिवार
त्याग से कल्याण
  



(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम संसारका विरोध करते हैं, तभी वह छूटता नहीं । वास्तवमें तो वह निरन्तर ही छूट रहा है । केवल हमारे तटस्थ, उदासीन होनेकी आवश्यकता है । अगर हम केवल दुःखी, व्याकुल हो जायँ तो भी वह छूट जायगा, चाहे परमात्माको मानें या न मानें । जो योगमार्गमें अथवा ज्ञानमार्गमें चल रहे हैं, उनके लिये तटस्थ होना बढ़िया है । जो भक्तिमार्गमें चल रहे हैं, उनको भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ता असह्य हो जाय ।

सांसारिक सम्बन्ध स्वतः छूट रहा है, पर हम नया-नया पकड़ते रहते हैं । बालकपना छूट गया तो जवानी पकड़ ली, जवानी छूट गयी तो बुढ़ापा पकड़ लिया, रोगीपना छूटा तो नीरोगता पकड़ ली, दरिद्रता छूटी तो धनवत्ता पकड़ ली । अगर यह पकड़ना छोड़ दें तो वह स्वतः छूट ही जायगा । हमें केवल त्यागका भाव बनाना है, त्यागी नहीं बनना है । त्यागी बननेसे त्याज्य वस्तुके साथ सम्बन्ध हो जायगा । जो मिला है, वह तो छूटेगा ही । वह बना रहे अथवा न बना रहे‒यही बन्धन है, और कोई बन्धन नहीं है । आजतक सृष्टिमें किसीका भी सम्बन्ध नहीं रहा तो हमारा सम्बन्ध कैसे रहेगा ? यह तो छूटेगा ही और प्रतिक्षण ही छूट रहा है । इसलिये हम ही अलग हो जायँ !

पारमार्थिक मार्गमें साधकको हिम्मत नहीं हारनी चाहिये; क्योंकि इसमें विजय निश्चित है । परमात्मासे तो कभी निराश नहीं होना चाहिये और संसारकी आशा नहीं रखनी चाहिये‒‘आशा हि परमं दुःखम्’ ( श्रीमद्भा ११ । ८ । ४४) । परमात्मा परम दयालु हैं, सर्वसमर्थ हैं और सर्वज्ञ हैं । वे सर्वज्ञ हैं, इसलिये हमारे दुःखको जानते हैं । वे परम दयालु हैं, इसलिये हमारे दु खको सह नहीं सकते । वे सर्वसमर्थ हैं, इसलिये हमारे दुःखको दूर कर सकते हैं । परन्तु जो सांसारिक पदार्थोंके लिये दुःखी होता है, वह कितना ही रोये, रोते-रोते मर जाय, पर भगवान् उसकी बात सुनते ही नहीं । कारण कि वह वास्तवमें दुःखके लिये ही रो रहा है ! परन्तु जो संसारका त्याग करनेके लिये रोता है, भगवान्‌को पानेके लिये रोता है, उसका दुःख भगवान् सह नहीं सकते ।

मनुष्य सांसारिक सुखमें फँसा है तो यह वास्तवमें केवल सुखलोलुपता है, सुखका लोभ है । सुख मिलता नहीं है । सुखकी मामूली झलक मिलती है, उसीमें वह फँसा रहता है । जैसे, गधेको सुबह थोड़ा-सा मोठ-नमक मिलाकर देते हैं । उसको खानेसे दाँत कड़कड़-कड़कड़ बोलते हैं तो वह राजी हो जाता है । फिर उससे दिनभर पत्थर ढोनेका काम लेते हैं । रात होनेपर उसको छोड़ देते हैं । रातमें वह गलियोंमें घूमता रहता है और सुबह होनेपर मोठ-चना खानेके लिये स्वतः चला आता है ! इस प्रकार थोड़े-से सुखके लिये गधा पूरे दिन पत्थर ढोता है । अगर वह सुख छोड़ दे तो फिर पत्थर क्यों ढोना पड़े ! इसलिये जबतक हम थोड़े-से सुखके लिये नया-नया सम्बन्ध जोड़ते रहेंगे, तबतक दुःख छूटेगा नहीं । जहरके लड्डू हम नहीं छोड़ेंगे तो जहर हमें नहीं छोड़ेगा । यह सुखासक्ति अगर हमारेसे न छूटे तो निर्बलताका अनुभव करके भगवान्‌को पुकारना चाहिये‒

जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सर्‌यो नहि काम ।
निरबल ह्वै  बलराम   पुकार्‌यो,   आये   आधे    नाम ॥
द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन,  तजि आये निज धाम ।
दुस्सासन की भुजा थकित भई,  बसन रूप भये स्याम ॥
                            सुने री मैंने निरबलके बल राम ॥

जबतक भगवान् सुखासक्ति न छुड़ाये, तबतक पीछे पड़े रहो । जैसे बच्चा माँका पल्ला पकड़कर पीछे पड़ जाता है कि मेरेको लड्डू दे दे तो माँ हारकर कह देती है कि जा, ले ले ! ऐसे ही दुःखी होकर भगवान्‌के पीछे पड़ जाओ तो वे सुखासक्ति छुड़ा देंगे ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे