Jul
31
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒गृहस्थका
धर्म तो पहले संन्यासी आदिको भोजन देनेका है और संन्यासीका धर्म गृहस्थके भोजन करनेके
बाद भिक्षाके लिये जानेका है, तो दोनों बातें कैसे ?
उत्तर‒गृहस्थको चाहिये
कि रसोई बन जानेपर पहले बलिवैश्वदेव कर ले, फिर अतिथि आ जाय तो उसको यथाशक्ति भोजन
दे और अतिथि न आये तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक दरवाजेके
बाहर खड़े होकर अतिथिकी प्रतीक्षा करे । अतिथि न आये तो उसका हिस्सा अलग रखकर भोजन कर
ले ।
संन्यासी कुछ
भी संग्रह नहीं करता । अतः जब उसको भूख लगे, तब वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर
जाय । जब गृहस्थ भोजन कर ले और बर्तन माँजकर अलग रख ले, उस समय वह भिक्षाके
लिये जाय । तात्पर्य है कि गृहस्थपर भार न पड़े, उसकी रसोई कम न पड़े । घरमें एक-दो आदमियोंकी
रसोई बनी हो और भिक्षुक आ जाय तो रसोई कम पड़ेगी ! हाँ, घरमें पाँच-सात आदमियोंकी रसोई
बनी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा; परन्तु उस घरपर भिक्षुक ज्यादा आ जायँ तो उनपर भी भार
पड़ेगा । अतः गृहस्थके भोजन करनेके बाद ही संन्यासीको भिक्षाके लिये जाना चाहिये और
जो बचा हो, वह लेना चाहिये
। संन्यासीको चाहिये कि वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर ज्यादा न ठहरे । अगर गृहस्थ
मना न करे तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक गृहस्थके घरपर ठहरे । अगर
गृहस्थके मनमें देनेकी भावना न हो तो वहाँसे चल देना चाहिये, पर क्रोध नहीं
करना चाहिये । ऐसे ही गृहस्थको भी क्रोध नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न‒गृहस्थको
अपने पड़ोसीके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?
उत्तर‒पड़ोसीको अपने
परिवारका ही सदस्य मानना चाहिये । यह अपना है और यह पराया
है‒ऐसा भाव तुच्छ हृदयवालोंका होता है । उदार हृदयवालोंके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी
ही अपना कुटुम्ब है[*] । भगवान्के नाते
सब हमारे भाई हैं । अतः खास घरके आदमियोंकी तरह ही पड़ोसीसे बर्ताव करना चाहिये । घरमें
कभी मिठाई या फल आ जायँ और सामने अपने तथा पड़ोसीके बालक हों तो मिठाई आदिका वितरण करते
हुए पहले पड़ोसीके बालकोंको थोड़ा ज्यादा और बढ़िया मिठाई आदि दे । उसके बाद बहन-बेटीके
बालकोंको अधिक मात्रामें और बढ़िया मिठाई आदि दे । फिर कुटुम्बके तथा ताऊ आदिके बालक
हों तो उनको दे । अन्तमें बची हुई मिठाई आदि अपने बालकोंको दे । इसमें कोई शंका करे
कि हमारे बालकोंको कम और साधारण चीज मिले तो हम घाटेमें ही रहे ? इसमें घाटा नहीं
है । हम पड़ोसी या बहन-बेटीके बालकोंके साथ ऐसा बर्ताव करेंगे तो वे भी हमारे बालकोंके
साथ ऐसा ही बर्ताव करेंगे, जिससे माप-तौल बराबर ही आयेगा । खास बात यह है कि ऐसा
बर्ताव करनेसे आपसमें प्रेम बहुत बढ़ जायगा । प्रेमकी जो कीमत
है, वह वस्तु-पदार्थोंकी नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(पंचतन्त्र, अपरीक्षित॰ ३७)
|
|